ग़ज़ल- क्यों देखते ही देखते मंज़र बदल गए…
क्यों देखते ही देखते मंज़र बदल गए।
क़ुदरत न बदली आपके तेवर बदल गए।।
सबका मक़ाम एक है क्यों घर बदल गए।
बदले न रूह ऐ कभी पैकर बदल गए।।
मालिक सभी का एक है दाता ज़हान का।
फिर क्यों हमारे आपके परवर बदल गए।।
सूरज व चांद एक धुरी पर ही घूमते।
बस घूमती धरा के ही मेहवर बदल गए।।
ज़ुल्मी तुम्हारे ज़ुल्म का अब इंतकाम है।
बदली न पीठ हाथ के ख़ंजर बदल गए।।
परवरदिगार-रूह में जब दिलबरी रही।
आते ही क्यों ज़हान में दिलबर बदल गए।
सबको ख़ुदा ने एक सा इंसां बनाया था।
बदले जो कर्म अपने मुकद्दर बदल गए।।
ग़ज़लें सुख़न के क़ायदों से ही चलें सदा।
पर ‘कल्प’ जैसे कितने सुख़न-वर बदल गए।।
✍ अरविंद राजपूत ‘कल्प’