ग़ज़ल की नक़ल नहीं है तेवरी + रमेशराज
तेवरी एक निश्चित अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था से बँधी एक ऐसी विधा है जिसमें सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना का आलोक है।
तेवरी क्या है, इसे समझाने का प्रयास करते हैं-
‘‘तेवरी गरीब की कमीज़ की सींता हुआ धागा और सुई है’।
तेवरी गरीब की जवान होती हुई ऐसी बिटिया है, जिस पर दानवों की पैशाचिक दृष्टि पड़ती है।
तेवरी बेटी के लिए दहेज न जुटा पाने वाले बाप की करुण-गाथा है।
तेवरी वसंत के उन्मादक रूप को नहीं निहारती, उस पर टिकी आशाओं को साकार रूप देती है।
तेवरी शान्त जल के ऊपर विहार करते हंसों का सौन्दर्य-बोध नहीं, बहेलिए के तीर से घायल हंस की आँखों की वेदना है।
तेवरी साकी के हाथ में लगा हुआ प्याला नहीं, शोषित, बलत्कृत नारी का आक्रोशमय बयान है।
तेवरी किसी शराबी के अंग-संचालन, परिचालन पर केन्द्रित चिन्तन नहीं, यह अपना सारा ध्यान उसकी विकृतियों पर केन्द्रित करती है।
तेवरी शमा और परवाने की दास्तान नहीं, गाँव और शहर के निर्धन, असहाय काका की झुर्रियों का इतिहास है।
तेवरी गुलाबी होठों का रसपान नहीं, दवा के अभाव में दम तोड़ते खुश्क होठों को भान है।
तेवरी आगे बढ़ती हुई सेना के जोश का बयान नहीं, धरती की सूनी होती हुई गोद का क्रन्दन है।
तेवरी अत्याचारी के खंज़र से टपकती हुई एक-एक खून की बूंद का हिसाब माँगती है।’’
[ तेवरीपक्ष-3, अरुण लहरी, पृ. 28 ]
तेवरी को स्पष्ट करने के लिए तेवरी के संदर्भ में, तेवरीपक्ष के प्रवेशांक में ही स्पष्ट घोषणा की गयी कि ‘कथित ग़ज़ल के शास्त्रीय और तकनीकी स्वरूप में जो रचनाएँ प्रेमिका के प्रणय-रूप, भोगवादी चरित्र या रोमानी संस्कारों को व्यक्त करने के बजाय घिनौनी व्यवस्था के प्रति आक्रामकता को ग्रहण किए हुए हैं, जिनमें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक विसंगतियों के बीच, मानव-मन में घुटन, सिसकन, सुबकन या क्रन्दन है, ऐसी रचनाएँ ग़ज़लें नहीं, तेवरी मानी जानी चाहिए, क्योंकि इनमें ग़ज़ल के मूल चरित्र के विपरीत आमूल परिवर्तन है। कथ्य के इसी परिवर्तन को दृष्टि में रखते हुए हमने जोर देकर कहा कि साहिर, फैज, कैफी या दुष्यन्त की कथित ग़ज़लें, ग़ज़लें नहीं, तेवरी हैं, क्योंकि इनके तेवर समकालीन व्यवस्था के प्रति असंतोष, विरोध, आक्रोश और विद्रोह से अभिसिक्त हैं।’ ग़ज़ल की कथित तकनीकी व्यवस्था के बावजूद, जिस प्रकार ग़ज़ल से कथ्य के आधार पर हज्ल को अलग किया गया, तेवरी भी अब उसी जायज माँग को दुहरा रही है।
ग़ज़ल-फोबिया के शिकार रचनाकारों ने हमारे इस प्रयास की आलोचना-सराहना कम, निन्दा ज्यादा की। उन्होंने एक सही बात को तर्क से कम, कुतर्क और दुराग्रह-भरे चिन्तन से काटने की अधिक कोशिश की। ग़ज़ल और हज्ल की सार्थकता को जानते, स्वीकारते, मानते हुए भी वे कटूक्तियों के हथियार लेकर तेवरी के समर्थकों पर हमला बोलने लगे। रमेश श्रीवास्तव ने कहा-‘‘ क्या यह तेवर कहानी, उपन्यास आदि में नहीं हैं, इस आधार पर तेवरी को ग़ज़ल से अलग कैसे करोगे?’’
श्री मुकुट सक्सेना ने सवाल जड़ा-‘‘ग़ज़ल में शे’र, रदीफ, काफिया आदि होते हैं अर्थात् हर विधा का एक छन्द-विधन होता है तो तेवरी का फार्मेट क्या है?’’
इस विषय में हमने बार-बार निवेदन किया कि ‘जब किसी वस्तु या विधा का कथ्य या चरित्र बदल जाता है अर्थात् वह वस्तु अपना मूल चरित्र त्यागकर, नया चरित्र अपनाती है तो नये चरित्र के अनुसार ही उसका मूल्यांकन किया जाता है और किया जाना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि इस नये चरित्र के अनुरूप उसे नया नाम भी दिया जाए। तेवरी में कहानी, उपन्यास की घुसपैंठ के सवाल या तेवरी की तकनीकी व्यवस्था का प्रश्न उठाने वालों से हमने सिर्फ इतना कहा कि-‘‘अगर ग़ज़ल का अर्थ प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत ही है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं तो क्या पूरा रीतिकालीन या छायावादी काव्य को इसकी परिधि में ले लेना चाहिए? शिल्प का अर्थ मात्र तुकान्त ही नहीं होते। कथ्य बदलने के बाद शिल्प में भी आमूल परिवर्तन आते हैं। उस विधा की रस-व्यवस्था, भाषा-शैली, मुहावरेदारी, प्रतीकात्मकता, आलंकारिकता भी बदल जाती है। तेवरी की तकनीकी व्यवस्था को ग़ज़ल की तकनीकी व्यवस्था सिद्ध करने वालों से निवेदन किया कि अगर यह तकनीकी व्यवस्था इतनी ही महत्वपूर्ण [ या सबकुछ ] है तो हज्ल के बारे में उनकी क्या राय है?
अस्तु! हमारा विरोध न हज्ल से है न ग़ज़ल से और न हम इन विधाओं की [ इनके ही संदर्भ में ] सार्थकता को संदिग्ध बना रहे हैं। हमारा विरोध तो कथ्य के संदर्भ में उस चरित्र के घालमेल से है, जिसमें भाले की चुभन, आलिंगन समझी जाती है। अनीति का विरोध, शृंगार का बोध बन जाता है। जिसमें ‘दुराचार के प्रति आक्रोश’ और ‘प्रेमिका से मिलने का तोष’ एक ही कहलाता है, जिसमें बलात्कारी-व्यभिचारी भी शृंगारी नजर आता है। जिसमें वार भी अभिसार ही बनकर उभरता है। जिसमें बहेलिए का तीर, प्रेम-वाण की तासीर लेकर पंछी की हत्या करता है।
चरित्रों के इस घालमेल को स्पष्ट करते हुए हमने बार-बार दुहराया कि माना स्त्री, स्त्री ही होती है, लेकिन उसे बाल्यावस्था में बालिका या बच्ची कहा जाता है, थोड़ी बड़ी होती है तो किशोरी बोली जाती है, अपनी परिपक्व अवस्था में वह युवती कहलाती है, बाद में वह प्रौढ़ा और वृद्धा बोली जाती है। जब उसका विवाह हो जाता है तो पत्नी के नाम से शोभा पाती है। बच्चों को जन्म देने के बाद माँ कहलाती है। प्रसव-पीड़ा से वंचित स्त्री ‘बाँझ’ का दर्जा पाती है।
माना औरत, औरत ही होती है लेकिन विभिन्न संदर्भों में चाची, ताई, मौसी, बूआ, मम्मी, ननद, सास, बहू क्यों कहलाती है? यह चरित्र की लीलाओं का ही कमाल है कि हम चरित्रहीन औरत को कुलटा, कलंकिन, डायन, नगर-वधू , गणिका, वैश्या, पांचाली आदि पुकारते हैं, जबकि सद्चरित्रा औरत, देवी, सती, सावित्री, मां स्वरूपा आदि-आदि संज्ञा-विशेषणों की हकदार बन जाती है। चरित्र विशेष के आधार पर दिये गये नाम क्या स्त्री के व्यक्तित्व को खंडित करने की साजिश माने जाने चाहिए? या चरित्र-परिवर्तन के बाद व्यक्तित्व के सही मूल्यांकन के आधार? एक समझदार चिंतक इस नाम परिवर्तन के सार्थकता को अवश्य समझेगा। लेकिन जिनके पास समझने के लिए कुछ है ही नहीं, वे ग़ज़ल और तेवरी में किये गये ऐसे अंतरों पर सही उत्तर देकर ओखली में अपना सर देना ही क्यों चाहेंगे?
तेवरी और ग़ज़ल में किये गये इस अंतर की सार्थकता और गंभीरता को न समझते हुए बडे़ ही अगम्भीर तरीके से एक कुतर्क हिंदी ग़ज़ल के विद्वान साहित्यकार श्री रतीलाल शाहीन ने दिया-‘‘नाम बदल देने से गुण या स्वभाव नहीं बदल जाते।’’
[आजकल, मार्च-2000, पृ0 21 ]
शाहीनजी के इस कथन में जब थन ही नहीं, तो तर्क का पौष्टिक दुग्ध् ढूंढने से फायदा ही क्या? माना नाम बदल जाने से गुण या स्वभाव नहीं बदल जाता। किंतु गुण या स्वभाव बदल जायें तो? ऐसे में चुंबन और क्रंदन में फर्क नहीं किया जाना चाहिए? क्या स्त्री को उसका विवाह होने के बाद ‘पत्नी’ न पुकारा जाये? क्या औरत संतान को जन्म देने के बाद ‘माँ’ कहलाने की हकदार नहीं? क्या परिपक्व अवस्था को प्राप्त स्त्री को बच्ची ही कहा जाए? एक ही पति की अवैध पत्नियाँ ‘सौतन’ या ‘रखैल’ नहीं कही जातीं? कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई, यदि प्यालों के स्थान पर तलवार थाम ले, तब क्या उसे वीरांगना कहना किसी अज्ञान का घोतक है?
वस्तुओं या विधाओं के परिवर्तन के बाद, इस परिवर्तन का सही मूल्यांकन न करना, एक अधोमुखी चिंतन नहीं तो और क्या है? तेवरी के भविष्य की चिंता करने के बजाय, ग़ज़ल के समर्थर्कों को ग़ज़ल की टांग-पूँछ की समझ में व्यापकता का समावेश करना चाहिए। उन्हें इस तथ्य की सार्थकता को पहचानना चाहिए कि ग़ज़ल की हू-ब-हू तकनीकी व्यवस्था को कायम रखते हुए भी हज्ल, ग़ज़ल से कैसे और क्यों अलग है? अगर ग़ज़ल का शिल्प ही महत्वपूर्ण होता तो ‘प्रेमपूर्ण बातचीत की शालीनता, प्रेमपूर्ण बातचीत की अश्लीलता’ का योग एक ही बोध को बोता। ग़ज़ल से हज्ल अलग हुई और उसे मान्यता भी मिली। इस प्रमाण पर ग़ज़लकारों के विचारों की चूल क्यों नहीं हिलीं?
ग़ज़ल से हज्ल अगर सिर्फ कथ्य के आधार पर पृथक हो सकती है तो तेवरी की ग़ज़ल से अलग पहचान क्यों नहीं हो सकती? इस विषय में अन्धे और सारहीन विरोध की झागदार वकालत से अलग कोई सार्थक तर्क या तथ्य क्यों नहीं सामने आ रहा है? हर कोई बस यह क्यों चिल्ला रहा है कि-‘‘अभी जुबां कटी नहीं [ तेवरी संग्रह ] की भूमिका में आग उगलता आक्रोश, ‘तेवरी’ को ग़ज़ल, हिन्दी ग़ज़ल से पृथक् नाम से, केवल कथ्य के आधार पर ही प्रतिष्ठित करने के लिए उतावला है जो कि अनुचित है, क्योंकि संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठकर कथ्य एवं कला शिल्प के बदलते तेवर की मूलभूत विशेषताओं की अवहेलनाओं को केन्द्र बनाकर किसी काव्य-विधा की बात नहीं की जा सकती है।’’ [ डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी, प्रसंगवश फरवरी-94, पृष्ठ 37 ] या
‘‘तेवरी की स्थिति ऐसी ही है जैसे प्रयोगवाद के समय में ‘नकेनवाद’ या ‘प्रपद्यवाद’ की हुई थी। उन्होंने अपने को सही प्रयोगवादी माना और प्रयोग को ही साध्य घोषित किया। कुछ ही समय में इन कवियों का जिक्र हाशिये पर रह गया और आन्दोलन नष्टप्रायः।’’
[ डॉ. संतोषकुमार तिवारी, प्रसंगवश, फर. 94, पृ.45 ]
अगर कथ्य या शिल्प के आधार इतने ही अनुचित या संकीर्ण हैं, जैसा कि डॉ. सत्यप्रेमी बतलाते हैं तो चुटकुला से लघुकथा के अन्तराधारों में कौन-सी उदारता है? नाटक और एकांकी के अन्तर की सार्थकता क्या है? ग़ज़ल और हज्ल के अन्तर में कौन-सी संकीर्णता मुखर है?
एक सही मूल्य के, सही मूल्यांकन का प्रयास [ नकेनवाद और प्रयोगवाद या प्रपद्यवाद की तरह ] बकवास भले ही सिद्ध हो जाये, इसमें आश्चर्य और चिन्ता जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए। क्रान्तिकारियों को गांधीवादियों ने हमेशा ‘आतंकवादी’ कहा। एक सही राष्ट्रीय विचारधारा को आज भी वह स्थान नहीं मिला, जिस स्थान पर गांधीजी की विचारधारा फल-फूल रही है। अहिंसा के मंत्र आज भी जनता को अराजकता, शोषण, यातना के विरुद्ध भीरू और कायर बनाने में अपनी वीभत्स भूमिका का निर्वाह करने में लगे हैं। मार्क्सवाद, पूँजीवाद के सामने आज दम तोड़ रहा है। धर्म के पाखंडी, अधर्म को सार्थक और सारगर्भित ठहराने में कामयाब हो रहे हैं। क्या इस आधार पर भगतसिंह जैसे महापुरुषों का चिन्तन अप्रांसगिक हो जाता है? नहीं। इसलिए चिंता यह नहीं होनी चाहिए कि किस आन्दोलन का भविष्य क्या रहेगा? चिन्तन का विषय यह होना चाहिए कि हम वस्तुओं या उनके व्यवहार का मूल्यांकन क्या सही तरीके से कर रहे हैं अथवा नहीं ?
इन बातों को कहने का यह आशय कदापि नहीं डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी या डॉ. सन्तोष कुमार तिवारी पर हम किसी प्रकार की अज्ञानता या अपरिपक्वता का आरोप जड़ रहे हैं। हमारे लिए दोनों ही श्रद्धेय हैं। हमारा निवेदन बस इतना है कि तेवरी की धारा, ग़ज़ल की धारा के समान या उससे निकलती हुई-सी जरूर महसूस होती है, लेकिन यह धारा उन सूखे हुए खेतों की ओर जाती है, जो समूची मानवता के लिए अन्न, फल, फूल, वस्त्र और छप्पर देते हैं। इस धारा में शराबियों के लिए सुरा जैसी मादकता वाला पेय नहीं। रोगी मानसिकता का उपचार करने वाला सुजल है। यह कैसे ग़ज़ल की नकल है? कहीं से किधर से भी कोई सार्थक तथ्य अब तक क्यों सामने नहीं आ रहा है? हर कोई सिर्फ यह कहकर ही क्यों तेवरीकारों को गरिया रहा है कि-‘‘तेवरीकार स्वयं को महान साबित करने की कोशिश में तमाशगीर जमूरे की तरह चीख-चिल्लाकर भ्रामक, बचकाने बयान देकर भीड़ जुटा रहे हैं, जो ग़ज़ल की महफिल में इज्जत न बचा सके, वे तेवरी के मैदान में दौड़ लगाने लगे हैं… तेवरी का भविष्य अकविता, विचार-कविता, नवगीत की तरह अन्धकारमय ही है। परिणाम वही होगा, तेवरी, कमअक्लों, अनपढ़ों की बात के समान ही माननी होगी।
[ तारिक असलम तस्नीम, तेवरीपक्ष-3, पृ.9 ]
‘‘तेवरी पढ़कर हमारे भी तेवर बदल गये हैं, बस हाथों में ले लिया डंडा। अब आप बताइये किसके सर पर दे मारूं?’’
[ कालीचरण प्रेमी, तेवरीपक्ष-3,पृ.8 ]
‘‘समझदार हो गये हो तेवरी के साथ, सुधरने का क्या लोगे? पहले सामान्य आदमी बनो, साहित्यकार तो बन ही जाओगे।
[ नन्दल हितैषी, तेवरीपक्ष-7 ]
उपरोक्त सारे बयानों की विशेषता यह है कि इनमें तेवरी और ग़ज़ल के बीच किये गये भेद के आधारों पर तो कोई सार्थक बहस नहीं की गयी है और न यह बतलाया गया है कि ‘इन आधारों के कारण तेवरी ग़ज़ल ही है।’
लगता यह है कि ग़ज़ल के समर्थकों के पास तेवरीकारों को कोसने, उन्हें आदमी बनने की सलाह देने, डंडा उठाकर सर पर दे मारने के अतिरिक्त कोई तर्क है ही नहीं। अगर कथ्य के आधार पर ग़ज़ल से हज्ल का व्यक्तित्व, अस्तित्व पृथक किया जा सकता है तो तेवरी को ऐसे आधारों पर अलग किया जाना, भ्रामक, दुर्भाग्यपूर्ण, बचकानापन, जमूरापन या महान साबित करने का एक अन्ध जुनून कैसे हो गया? इसके लिए कोई तर्कसंगत उत्तर कभी समाने आयेगा? यह वैचारिक-स्खलन हमें कहाँ ले जायेगा?
ऐसे में हम पुनः जोर देकर एक ही बात कहना चाहेंगे कि-ग़ज़ल और तेवरी के बीच अन्तर करने का यह प्रयास, ग़ज़लपन को खारिज करने की कोई कोशिश न पहले थी, न अब है और न यह मुद्दा बहर, रदीफ-काफिये, मतला-मक्ता, शे’र की स्वच्छन्दता और निश्चित अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था की खींचतान का है। यह मुद्दा तो एक सही मूल्य के सही मूल्यांकन का है। ग़ज़ल किसी छन्द विशेष, तकनीकी विशेष या फार्म विशेष का नाम नहीं। अगर ऐसा होता तो ग़ज़ल से हज्ल कैसे पृथक की जाती? चिन्तन के इस बिन्दु पर अगर धीरेन्द्र शर्मा जैसे सुधी लेखकों या विद्वानों को अब भी यह शिकायत रहे कि-‘‘तेवरी, ग़ज़ल के फार्म में ही क्यों लिखी जा रही है?’’ तो इसमें बेचारे तेवरीकार कर ही क्या सकते हैं??
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-