ग़ज़ल:- ऑंखों में क़ैद रहना सुनहरा लगा मुझे…
ऑंखों में क़ैद रहना सुनहरा लगा मुझे
मंज़र हसीन दिल का वो पहरा लगा मुझे
क़ातिल निगाह उसकी मेरा क़त्ल कर गई
मासूम फिर भी यार का चेहरा लगा मुझे
महफ़िल न रास आई ऐ तन्हाई ढस रही
बाग-ए-इरम़ भी बिन तेरे सहरा लगा मुझे
यूॅं छोड़कर गये कि ज़माने गुज़र गये
क्यों वक्त़ इंतजार में ठहरा लगा मुझे
डूबा हूॅं उसके प्यार में ना थाह मिल रही
सागर के जैसा ‘कल्प’ वो गहरा लगा मुझे
✍ अरविंद राजपूत ‘कल्प’