ग़ज़ल- इश़्तहारों में न पड़िए कल्प साहिब…
फूल ख़ारों में न पड़िए कल्प साहिब।
गुल बहारों में न पड़िए कल्प साहिब।।
ख़ुद-ब-ख़ुद ही शख़्शियत देती गवाही।
इश्तहारों में न पड़िए कल्प साहिब।।
इक़ अकेला शम्स काफी आसमां में।
चाँद तारों में न पड़िए कल्प साहिब।।
हौसलों से ही मिलेंगी मंज़िलें अब।
इन सहारों में न पड़िए कल्प साहिब।।
कोई अच्छे दिन नहीं हैं आने वाले।
झूठे नारों में न पड़िये कल्प साहिब।।
ये गुहर गहरे में जाकर ही मिलेंगे।
इन किनारों में न पड़िये कल्प साहिब।।
‘कल्प’ अदबी शायरी कीजै अदब़ से।
इन गॅंवारों में न पड़िए कल्प साहिब।।
✍️अरविंद राजपूत ‘कल्प’