ग़ज़ल:- अक़्सर….
खुश़्बुओं पर मैं लपक जाता हूॅं अक़्सर।।
राह से अपनी भटक जाता हूं अक़्सर।
मिल गया चुनने अगर दाना कहीं तो।
मैं परिंदों सा चहक जाता हूं अक़्सर।।
एक पल ओझल हुई तस्वीर तेरी।
तब हलाहल भी गटक जाता हूं अक़्सर।।
ज़हन में जब भी ख़्याल आता है तेरा।
तेरी ख़ुशबू से महक जाता हूं अक़्सर।।
शेर था मजबूरियों ने धर दबोचा।
देख अब कुत्ते दुबक जाता हूॅं अक़्सर।।
शौक़ से पड़ता तुम्हारी हर ग़ज़ल को।
दाद देने में झिझक जाता हूॅं अक़्सर।।
‘कल्प’ से अब क्या कहूॅं कैसे कहूॅं मैं।
वाह! कहने में ठिठक जाता हूॅं अक़्सर।।
✍अरविंद राजपूत ‘कल्प’