ग़ज़लें
बड़ी अजीब सी बातें जनाब करते हैं
नदी की धार में हैं पानियों से डरते हैं
हमें है खौफ़ बिजलियाँ जला न दें घर को
वगरना हम तो सावनी रुतों पे मरते हैं
चराग़ ढांप के दामन से अपने मत निकलो
हवाएं तेज़ हैं शाखों से बर्ग झरते हैं
तबाहियों का हाल उनसे पूछना बेहतर
जो बाद बाढ़ के बालू से घर उभरते हैं
ये ज़िदगी के ठूंठ, सिलवटों भरे चेहरे
किसी ख़याल से डरकर बहुत सिहरते हैं
उन्हें चमन की ख़ाक फिर कहाँ मयस्सर हो
जो फूल ग़ैर के दामन में रंग भरते हैं
महक लुटाने लगे नर्गिसी गु´चे शैली
तुम्हारी याद के मंज़र बहुत उभरते हैं
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ये किसके घर से हो के आज हवा आई है
जो साथ नर्गिसी फूलों की महक लाई है
दरख़्त सेब के फेंके हैं नोच-नोच क़बा
सफ़र है दूर का सूरज से भी जुदाई है
हमारे शहर में सूरज उदास सा क्यों है
कहीं से उसने भी कोई तो चोट खाई है
हमारी जिंदगी हर मोड़ पर रुकी ठिठकी
तअल्लुकात के ख़ारों पे चलके आई है
मैं गुलिस्तां के ही धोके में यहाँ आई हूँँ
यहाँ भी ख़ार हैं तेरी अजब खुदाई है
मेरा वजूद नदी सा रवां-दवां फिर भी
कदम-कदम पे पत्थरों से चोट खाई है