गले लगा कर रोया
गले लगा कर रोया वो,घर के दीवार ओ दर।
लौटा जो मुद्दत बाद, इंतज़ार में था बस घर।
चाहत किसी रिश्ते को न थी उसके लौटने की
बस एक टूटा सा दरवाजा,सूखा एक शजर।
सपनों संग उड़ने गया था,अपनों को तन्हा छोड़
किसी की भी मगर ,परछाई न आई नज़र।
मां का अंगना,बाप की खटिया, वैसे ही सब थे
बस तस्वीरें ही रह गई थी,कैसा था ये सफ़र।
सपने आंचल में भरे तो,अपने कैसे रूठ गये
मारेगी ये तन्हाई ,न जाने क्या हो अपना हश्र।
Surinder Kaur