गलतफहमी
हैं खड़े जो रेत की बुनियाद पर,
भार अपना खुद बढ़ाए जारहे हैं।
दे न पाए रोटी मां को दो वक्त की,
खामखां कुनबा बढ़ाए जारहे हैं।।
खुद डूबने से जो बचे मजधार में,
वो तैरने का फन सिखाने जारहे हैं।
उड़ना जिसने स्वपन में देखा न हो,
खुद का तैय्यारा बनाने जा रहे है।।
है भ्रमित ये सब अलंकृत काव्य से,
चल पड़े पत्थर लिए आसमां में छेद करने।
है कहां इनको पता, आसमां है दूर कितना,
इस गलतफहमी में “संजय”, चल दिए बे मौत मरने।।
जै हिंद