गर तू गैरों का मुंह ताकेगा।
अपनी ताकत भूल के गर तू गैरों का मुंह ताकेगा।
इस दर से उस दर तक पूरी उम्र तू पतरी चाटेगा।
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कई पीढियां गुजर चुकी हैं लापरवाही झेल रहा।
तुझे हिकारत मिलेगी जब तक हाथ जोड़कर मांगेगा।
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सोच रहा है आये कोई तेरे सारे दुःख हर ले।
ऐसी प्रत्याशा के पीछे कह दे कब तक भागेगा।
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लोग जहाँ में बढ़ते जाते उलटे सीधे काम किये।
कायरता के चरखे पर तू कब तक खादी कातेगा।
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लुटता कटता पिटता मरता क्रमशः छीण हुआ है तू।
इसे भूलकर कब तक अपने शौर्य की डींगे हांकेगा।
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लिखा हुआ है सबकुछ उस पर चलकर जीकर देख कभी।
कब तक अपने ग्रन्थों को तू तोता बनकर बांचेगा।
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“नज़र” न अब भी नज़र सुधारी नामशेष रह जाओगे।
मिस्र पर्शिया रोमन बनकर तू इतिहास से झांकेगा।
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कुमारकलहँस