“गर कहीं मिल जाए बचपन”
याद करते हैं, सब बचपन को
गर कहीं मिल जाए बचपन,
क्यूं चाह है उस गुलामी की,
कई बंदिशें, बिल्कुल ना थी मनमानी
आज आजाद होके भी, याद करते हैं,
गर कहीं मिल जाए बचपन।
पिता की डांट फटकार,
बड़े भाई -बहिन की बेवजह की मार
आज सबसे है आजाद, फिर क्यूं है उदास
गर कहीं मिल जाए बचपन।
आज जमाने के इस दौर में ,
सब कुछ है तेरे हाथ,
बचपन की याद ,बुढ़ापे की संवार,
फिर क्यूं है यह चाह,
गर कहीं मिल जाए बचपन।
याद आती है बचपन की, वह,
बेफिक्र ,घूमना लड़ना झगड़ना
आज हर बात में ,जीवन संयमित रखना
थक गया हूं, संवारते संवारते जीवन
गर कहीं मिल जाए बचपन।
बचपन का सबसे सुखद अंश मां की गोद,
आज भी मिल जाए, गर मां की गोद,
लोरी सुन कर वेफिक्र सोना,
गोद की माटी में , खिलता है बचपन
इसी की चाह में,
गर कहीं मिल जाए बचपन।
मां का आंचल, बना ओड लूं जीवन,
गर कहीं मिल जाए बचपन।