गर्व की अनुभूति
गर्व की अनुभूति
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बरसात का दिन। आकाश में भूरे-मटमैले बादल आराम से घूम-फिर रहे हैं। हल्की फुहारों से प्रकृति आनंदित हो रही है।अकाल की आशंकाओं के बीच की झींसी-बुनी ने किसानों के मन रूपी मोर को अपनी स्वाभाविक रीति से नाचने को विवश कर दिया है।उनके चेहरे पर प्रसन्नता झलकने लगी है।धान की फसल के लिए यह कनारा…कहने ही क्या! मानों धान ही धान बरस रहा है। पेड़-पौधों की हरियाली धरती माता को चार चाँद लगा रही है। पशु-पक्षी भी जी भरकर नहा लेना चाहते हैं; पता नहीं,फिर कब आसमानी अमृतधारा से तन-मन तृप्त हो? अभी कल तक ही तो धरती की कोमल त्वचा रूखी हो कर ऐसी दीख रही थी मानों फटी बिवाई हो। धान की खड़ी फसल पीली होकर पीतरोग से ग्रस्त जैसी दीखने लगी थी। पर पानी की आस में आकाश की ओर आशा से निहार रहे धान के पौधों का जीवट भी किसानों के जीवट की तरह अभी मरा नहीं था।उन्हें यह विश्वास था कि इन्द्रदेव की अमृतवर्षा से उनके दिन भी अवश्य बहुरेंगे।
राजेंद्र की संभावनाएँ भी इसी आस में गुँथी हैं।कुछ माह पूर्व ही उन्होंने अपनी छोटी बेटी का खूब धूमधाम से विवाह किया है।दान-दहेज तथा आवभगत में लाखों रुपए कर्ज चढ़ गए हैं।ऊपर से अकाल की आशंका ने तो उन की धड़कनें और भी बढ़ा दी है। अगर धान नहीं हुआ तो….? खैर,अब आस की दीयरी जल रही है।क्वार मास की झपसा से राजेंद्र का हृदय प्रफुल्लित हो रहा है। पानी में भींगते हुए उसने गोबर-गोथार किया तथा गाय-बैलों को जल्दी-जल्दी सानी-पानी दिया।फिर तेजी से घर के आँगन में कदम रखते हुए अपने बेटे को आवाज़ दी,”सचिन,अरे ओ सचिन!कुदाल कहाँ रख दिया तूने?जल्दी लाओ,डड़ेर बाँधने जाना है।देर हो जाएगी, तो पानी बह जाएगा।”
“इतनी तेजी भी क्या है?अभी तो खेत का दरार भी नहीं भरा होगा।कोला-बारी में छीप-छाप पानी देखकर उतावला होने की इतनी भी क्या आवश्यकता? पहले कुछ खा-पी लीजिए, फिर सरेह में जाइएगा।” सचिन शान्त भाव से अपना काम करते हुए बोला।वह अनाज की बोरियों को भींगने से बचाने के लिए घर के एक कोने में सहेज रहा था।
“यही तो तुम्हारी कमी है। आजकल के लड़के काम को टालने में ही सारी बुद्धि खपा देते हैं। जब पानी बहने ही लगेगा तो जाकर मैं क्या उखाड़ लूँगा। माटी मेढ़ पर टिक पाएगी भला ?” कुछ देर रुक कर फिर राजेंद्र बोलने लगे,”हथिया का पानी तो सोना है, सोना। एक बूँद भी खेत से बाहर निकल गया तो खेत-लक्ष्मी रुठ ही जाएँगी। और आगे रबी के लिए भी तो हाल चाहिए कि नहीं?”
” ठीक है, ठीक है; लाता हूँ। आँगन में खड़ा होकर जितनी देर बकबक करते हैं, उतनी देर में ढूँढ लेते।”सचिन अंदर से कुदाल हाथ में लाते हुए बड़बड़ाया। उसके चेहरे पर खीज साफ झलक रही थी। वह अनमने ढंग से कुदाल राजेंद्र के पास लाकर रख दिया और मुड़ने को हुआ कि राजेंद्र ने टोका,”सुना है, यूरिया की किल्लत हो गई है।गाँव की दुकान में तो ढाई सौ रुपये का बोरा पाँच-पाँच सौ में बिक रहा है।”
“वह तो होना ही था। बारिश हुई नहीं कि खाद का गोरखधंधा शुरु। इसीलिए तो मैं कब से कह रहा था कि आठ-दस बोरा खरीद कर रख लें।पर आपको तो जैसे विश्वास ही नहीं था कि बारिश होगी भी या नहीं?”
“सचिन, अब तुम बच्चा नहीं रहे।घर की हींग-हरदी तक से परिचित हो। हाथ में पैसा ही कब था जो खरीदते?” राजेंद्र की व्यथा छिपाए नहीं छिप रही थी।आँखों के पीछे की झुर्रियाँ और गहरी लगने लगी थीं।सिर्फ अपने साहस के बल पर जीवन की नैया को किसी प्रकार खींचकर पार उतारने को क्षमता से अधिक जोर लगा रहे थे।
“तो आज कहाँ से आ जाएगा?”
” मुन्नीलाल साव से पाँच मन धान पर डेढ़ हजार रुपये माँगा है। जब धान होगा तो दे दिया जाएगा।” राजेंद्र ने सकुचाते हुए उत्तर दिया।
“अच्छा, तो मछली अभी पानी में और नौ-नौ कुटिया हिस्सा लगना शुरू।”
“दूसरा उपाय ही क्या है?”
“आपका सामान है; खाक में बेचिए या लाख में। आपको तो पता होगा ही कि सरकारी दर पाँच सौ रुपये प्रति मन है।”
“पता है,पर सरकार खरीदती कहाँ है?पिछले साल ही तो खाद्य-निगम का बार बार चक्कर लगाया था कि नहीं तुमने? बिका क्या एक सेर भी? नहीं न?….अरे वहाँ तो बड़े-बड़े लोगों का ही चलता है।”
सचिन को तुरंत पिछले वर्ष की असफलता का बोध हुआ। वह बात को बदला,” तो क्या ढाई सौ रुपए की यूरिया पाँच सौ में खरीदी जाएगी?यह दिनदहाड़े डकैती है कि नहीं?”
“बिल्कुल डकैती है;पर मरता क्या नहीं करता? खेत में यूरिया डालनी है कि नहीं?यह तो सरकार ही की न जिम्मेवारी है कि किसानों को उचित दर पर खाद-पानी उपलब्ध कराए।पर यहाँ तो अँधेर नगरी चौपट राजा वाली बात है। सब के सब अंधे बने हैं।”
“अंधे वे नहीं, आप-हम जैसे लोग हैं। आज जिसके पास पैसा है न,वही बड़ा है और ताबड़तोड़ पैसा कमरतोड़ परिश्रम से नहीं; जोड़-तोड़ से आता है।आज अपने ही गाँव में देख लीजिए।अनाज का गोरखधंधा करने वाला मुन्नीलाल साव हो या खाद की कालाबाजारी करने वाला धरणीधर पांडे ;सब बड़े-बड़े बँगले में रह रहे हैं,चारपहिया गाड़ी पर चढ़ रहे हैं, बच्चों को राजधानी के कान्वेंट में पढ़ा रहे हैं और लोग सुबह-शाम उनकी खुशामद भी कर रहे हैं। और आपके जैसे किसान चमड़ी जला- जला कर काम कर रहे हैं, फिर भी जस के तस हैं।”
“बेटा, वे चाहे टाटा डालमिया क्यों न बन जाएँ, समाज में उनकी कोई प्रतिष्ठा है क्या? सब जानते हैं; वे चोर हैं, भ्रष्ट हैं,बेईमान हैं।कोई भी व्यक्ति हृदय से उन्हें आदर नहीं करता। अपना काम निकालने के लिए लोग उनकी खुशामद करते है।……हमारे आदर्श हमारे पूर्वज हैं,सचिन, जिन्होंने सत्यनिष्ठा से इंसानियत का काम किया है; परिश्रम से परिवार पाला है; त्यागपू्र्वक उपभोग किया है और समस्त प्राणिजगत की सेवा की है।त्याग,तपस्या और सत्यनिष्ठा से कार्य करने वाला किसान भी एक सन्यासी जैसा होता है,बेटे!इसलिए हमें गर्व है कि हमारे बाप-दादा किसान थे…..और मैं भी एक किसान हूँ…..” राजेंद्र की बात अभी पूरी भी नहीं हो पाई थी कि रसोई घर में चूल्हे में आग को तेज करने के लिए फूँक मारती हुई बहू रीना की कटूक्ति गूँजी,”पर मेरा बेटा किसान नहीं बनेगा।”
राजेंद्र को यह बात तीखी मिर्ची जैसी लगी, पर वे बहू से उलझना अपना अपमान समझते थे। इसलिए कंधे पर कुदाल उठाकर बाहर निकलते हुए बोले,”सचिन,मैं खेत की ओर जा रहा हूँ। साव से डेढ़ हजार रुपए लेकर कहीं से भी यूरिया ला देना अन्यथा बहुत घाटा लगेगा।”
राजेंद्र का तिलमिलाया चेहरा देखकर सचिन को अपनी पत्नी पर बहुत ही गुस्सा आया।वह झड़ककर रसोईघर के द्वार पर पहुँचा और गुर्राया,”तुमको कितनी बार मना किया है,बाबूजी को जो बातें कष्ट पहुँचाती हैं उनसे दूर ही रहो।पर तुम्हारा स्वभाव तो बिच्छी जैसा हो गया है,अवसर मिला नहीं कि डंक मार दी।”
सचिन की बातें सुनकर रीना भी क्रोधावेश में आ गई।वह भी फुर्नायी,”साँच को आँच क्या?किसानी करते-करते तो कितनी पीढ़ी खप गई।हुआ क्या?नया अनाज और पुराने कपड़े से पिंड छूटा कभी?बाबा-दादा के जमाने के खपड़फूस मकान में अब भी बरसात की रात जागकर बितानी पड़ती है।ढेंकी-जाँता चलाते-चलाते अंग-प्रत्यंग में गाँठ पड़ गई है। पर्व-त्यौहार तक में भी उल्लास नहीं रहता है इस घर में।आखिर क्यों मेरा बेटा बनेगा किसान?क्या करूँगी मैं उससे किसानी कराकर?”
” बस भी करो,हद हो रही है।” सचिन बीच में ही डपटा,पर रीना कहाँ मानने वाली थी। जब नारी अपना संकोच त्याग देती है तो फिर काल से भी नहीं डरती।वह अपने मन का गुबार निकलती रही,”लाज लग रही है? घर में औरत भिखारिन जैसी रहती है,तो लाज नहीं लगती? बच्चों को पढ़ाने के लिए पैसा नहीं है,तो लाज नहीं लगती? साव का कारकून कर्जा वसूलने आता है,तो लाज नहीं लगती?अरे कहाँ-कहाँ लाज रोकते रहिएगा? मैं अपना गहना-गुरिया बेचकर बच्चे का नाम लिखवाई शहर के स्कूल में। वहाँ रहने के लिए अब भी बूता नहीं है,बच्चे बस से आते-जाते हैं। और कह रहे हैं कि हद हो रही है? हद तो आप लोग कर रहे हैं।”
कठोर वास्तविकता से पाला पड़ते ही सचिन का गुस्सा गदहे के सींग की भाँति फुर्र हो गया।वास्तव में नारी के गुस्से को गुस्से से नहीं दबाया जा सकता। गुस्से को जीतने का मंत्र प्रेम है। सो,सचिन भी प्रेम से समझाने लगा,” देखो मन्नू की माँ,तुम एक पढ़ी-लिखी समझदार औरत हो।तुम भी अनपढ़ अशिक्षित औरतों की तरह उलझोगी,तो यह तुम्हारी मर्यादा के अनुकूल है क्या?वास्तविकता समझने का प्रयास करो। मैं अबतक बेरोजगार हूँ। बाबूजी अब काफी थक चुके हैं।और संसाधन भी कम है हमारे पास। फिर भी वे जी जान से लगे हुए हैं आखिर किसके लिए? हमारे लिए ही न? माई के परलोक सिधार जाने के बाद वैसे ही वे कितने कमजोर हो गए हैं…. और तुम हो कि ताना देना छोड़ती नहीं। आखिर उनकी अवस्था का भी तो आदर करो।” सचिन की आँखें नम हो चली थीं।अपने कंधे पर रखे गमछे से उसने गाल पर लुढ़क आये आँसुओं को पोंछने की असफल कोशिश की।
सचिन की बातों ने रीना की अन्तरात्मा को झकझोर कर रख दिया। नारी जब प्रतिकारी बन जाए,तो वह वज्र से भी कठोर बन जाती है;पर जैसे ही उस में नारीत्व विकसित होता है कमल की पंखुड़ियों से भी कोमल हो जाती है।रीना का ह्दय पश्चाताप से भर गया।वह सचिन के पास आकर उनके बिखरे हुए बालों को अपनी उँगलियों से सुलझाने का प्रयास करती हुई बोली,”कब तक खेती पर निर्भर रहोगे?कोई धंधा क्यों नहीं करते? तुम्हारे ही कई मित्र धंधा-व्यापार करके कितना आगे बढ़ गए हैं। तुम भी क्यों नहीं वैसा ही कुछ करते हो? माना की नौकरी का संकट है,पर आखिर खेती से भी क्या होने वाला है?”
सचिन कुछ पल सोचता रहा।फिर रीना का हाथ अपने हाथ में लेकर उसकी ओर विश्वास से देखते हुए बोला,”गाँव में कौन कैसे पैसा कमा रहा है, मैं अच्छी तरह से जानता हूँ।मैं उनके जैसा गोरखधंधा कर पैसेवाला नहीं बनना चाहता।मैं तो बाहर जाकर भी पैसे कमा सकता हूँ;पर जब बाबूजी को देखता हूँ,तो फिर सारे विचार धारे के धरे रह जाते हैं। माई-बाबूजी ने मुझे खुश रखने के लिए क्या-क्या नहीं किया है? कौन-कौन सा कष्ट नहीं झेला है उनलोगों ने?और जब उनके लिए कुछ करने का समय आया,तो मैं उन्हें अकेला छोड़ कर बाहर चला जाऊँ? मन्नू की माँ,मेरा अंतर्मन से स्वीकार नहीं करता है। इसलिए मैंने निर्णय लिया है कि अब खेती में ही बाबूजी का हाथ बटाऊँगा और उसी को उन्नत कर अपने परिवार में समृद्धि लाऊँगा।आखिर यदि सारे नौजवान खेती छोड़ दें, तो अपने देश-समाज का क्या होगा,कभी सोची भी हो?”
“सारे लोग तो अपने ही बारे में सोच रहे हैं।देश- दुनिया की कौन सोचता है?पहले अपने घर में दीया जला कर ही तो मंदिर में जलाते हैं न? और वैसे भी अब अन्न के बिना कोई भूखा थोड़े ही मरने वाला है? सरकार की गोदामों में अनाज सड़ रहे हैं।”
“जब कोई खेती ही नहीं करेगा तो गोदामों के अनाज कितने दिन चलेंगे? फिर क्या होगा?या तो भूखे मरना पड़ेगा या विदेशी दासता स्वीकार करनी होगी।”
“हमेशा बिना सिर-पैर की बातें सोचते रहते हैं आप। चलिए भोजन कीजिए और जाइए यूरिया लाने। जो काम कीजिए,मन लगाकर कीजिए;केवल बुद्धि मत खपाया कीजिए।” रीना ने विनोदी स्वभाव दिखाकर माहौल को हल्का करने का प्रयास किया।और वह सफल भी रही।
” ठीक ही है;जल्दी परोसो। मैं शीघ्र कुल्ला-गलाली करके आता हूँ।” हल्की मुस्कान बिखेरता हुआ सचिन द्वार की ओर बढ़ गया।
भोजन के पश्चात मुन्नीलाल से पैसे लेकर सचिन खाद की दुकान पर पहुँचा।वहाँ ग्राहकों की भीड़ बाढ़ के पानी की तरफ बढ़ती जा रही थी।इधर-उधर से कुछ मित्र पास आ गए।उन से चर्चा करने पर पता चला कि पांडे ने खाद की बोरियों को घर में छुपा रखी है और पीछे के द्वार से उसके आदमी पाँच-पाँच सौ रुपये में ब्लैक बेच रहे हैं।
“दुकान के सामने तो सूचनापट्ट पर दो सौ सत्तर रुपये प्रति बोरा ही लिखा है।” सचिन सूचनापट्ट को देखते हुए बोला।
“यह भी तो लिखा है कि भण्डार शून्य है।” उसका मित्र चंदन तपाक से बोला।
“तो फिर क्या किया जाय?” सचिन के माथे पर चिंता की लकीरें खिंचने लगी थीं। उसे बाबूजी की बातें याद आ रही थीं।
“यूरिया तो चाहिए। इसके बिना धान होने से रहा।” चंदन निराश भाव से चिन्तित होकर शब्दों को चबा-चबाकर बोला।
“सुना है शहर में पौने तीन सौ में ही सरकार बेचवा रही है।एसपी-डीएम खड़े होकर पंक्ति लगवा रहे हैं।”एक दूसरे मित्र विवेक ने जानकारी दी।
“तो क्यों नहीं शहर से ही ले आया जाए। तीनों के पास साइकिल है ही।तीन-तीन बोरा लाद लिया जाएगा।”चंदन उत्साहित होकर बोला जैसे उसे यूरिया मिल ही गई हो।
“ठीक है वही चलते हैं। यहाँ खड़ा रहने से क्या लाभ? लगता है इस तीसी में तेल नहीं है।” सचिन ने निर्णायक मंतव्य दिया और वे सभी शहर की ओर चल पड़े।
शहर में भी खाद की दुकान पर बहुत भीड़ थी और पुलिस के द्वारा भीड़ को नियंत्रित किया जा रहा था।भीड़ रह-रहकर उत्तेजित हो जाती थी और फिर कुछ देर तक अस्त-व्यस्तता बनी रहती थी। पुलिस-दल फिर किसी प्रकार शांति- व्यवस्था स्थापित करते। सचिन और उसके मित्र भी अब भीड़ का हिस्सा थे। अभी इनकी बारी आई भी नहीं थी कि दुकानदार ने सूचना दी,”भंडार खत्म हो चुका है।ट्रक से माल आ रहा है। आने के बाद पुनः वितरण किया जाएगा।”
फिर क्या था? घंटों से पंक्ति में खड़े सैकड़ों लोगों का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। लोग इसे दुकानदार द्वारा प्रशासन की मिलीभगत से जनता को ठगने का बहाना मानते हुए हिंसा पर उतारू हो गए। दुकानदार और पुलिस प्रशासन के विरुद्ध नारेबाजी से प्रारंभ हुआ प्रदर्शन कुछ ही देर में हिंसक तांडव का रूप धारण कर लिया। दुकान में आग लगा दी गई।पुलिस वालों को पकड़कर पीटा जाने लगा।सड़क पर चल रही गाड़ियों पर पथराव होने लगा।इसी बीच जिलाधिकारी की गाड़ी पहुँची। लोगों ने उसे घेर लिया और पलक झपकते ही गाड़ी का कचूमर निकाल दिया गया।अब तो अंगरक्षकों ने गोलियाँ बरसानी शुरू कर दीं।पहले हवा में गोलियाँ चलीं और फिर जल्दी ही सीने को चीरकर निकलने लगीं। कोई दस मिनट भी नहीं बीता होगा; चारों ओर सन्नाटा पसर गया।यूरिया की आस लेकर आये कई लोग यूरिया की बोरियों की तरह प्राणशून्य हो शान्त पड़ गये। सचिन भी इन्हीं दुर्भाग्यशालियों में सम्मिलित था।
घटना के दूसरे दिन सरकार के एक मंत्री के साथ जिलाधिकारी राजेंद्र के घर पहुँचे। मंत्री जी ने राजेंद्र को सरकार द्वारा घोषित एक लाख रुपये का चेक दिया। मीडियाकर्मियों के कैमरों के फ्लैश चमक उठे।राजेंद्र की बूढी काया का हर कोने से छायाचित्र उतारा गया। अगले दिन समाचार पत्रों में राजेंद्र और उनके परिवार की कही-अनकही कथाएँ सचित्र छपीं।गाँव के लोगों में समाचार पढ़ने और उस पर चर्चा की होड़ थी। पर राजेंद्र की साँसें अपने भविष्य की चिंताओं पर आकर अटक गई थीं।
तेरहवें दिन सभी आगत-कुटुम्बजन सांत्वना के दो औपचारिक बोल बोलते हुए अपने घरों की राह पकड़े। राजेंद्र द्वार पर बैठे रहे अकेला; बिल्कुल अकेला। धीरे-धीरे उन्होंने अपना संबल सँजोया और साहस पूर्वक घर के अंदर प्रवेश किया। वे रीना का तेजहीन चेहरा देखकर बिलख पड़े। पश्चाताप की मुद्रा में हाथ जोड़कर बोले,”दुलहिन, मैं तेरा अपराधी हूँ। मेरे कारण ही तेरा संसार उजड़ गया।इसके लिए तुम जो भी सजा उचित समझो,मुझे स्वीकार है…..” कुछ पल बाद सिसकते हुए पुनः बोले,” मैं तुम्हारे उजड़े घर को बसा तो नहीं सकता, पर तेरे और बच्चों के चेहरे पर खुशियाँ लाने के लिए वह हर संभव प्रयास करूँगा जो हो सकता है। …..यह लो चाबी…,” चाबी को रीना की ओर उछालते हुए राजेंद्र की वाणी और भी भर्रा गयीं,” मैंने तेरे लिए शहर में डेरा ले लिया है। अब तू अपने बच्चों के साथ वहीं रहेगी। कल सवेरे गाड़ी वाला आएगा।सामान तैयार रखना।….. मैं तुम्हारा सारा खर्च समय पर पूरा करूँगा। हाँ, कोई कमी नहीं छोड़ूँगा।….विश्वास रखो ….अब तुम्हारे बेटे खेती नहीं करेंगे। कभी नहीं करने दूँगा उन्हें खेती। तुम निश्चिंत होकर उन्हें शहर ले जाओ….” कहते-कहते वे फफक-फफक कर रो पड़े। रीना भी रोती हुई कमरे के अंदर चली गई। राजेंद्र वहीं पड़े इन सब दुनियादारी से दूर रीना के ढाई वर्ष के सबसे छोटे बच्चे को गोद में उठाकर पुचकारते हुए द्वार की ओर निकल पड़े। रीना की अंतहीन वेदना उनके हृदय को कचोट रही थी।
रात में भोजन करने के लिए राजेंद्र बुझे मन से किसी तरह पीढ़े पर बैठे थे।रीना सामने भोजन की थाली सरकाकर बगल में चाबी रखती हुई बोली,”बाबूजी, मैं शहर नहीं जाऊँगी। अपने बच्चों के साथ मैं यहीं रहूँगी, आपके पास।”
“नहीं दुलहिन, ऐसा मत करो। मैं तुम्हारा भविष्य अपने जैसा बनाना नहीं चाहता। मैं तुम्हारे बच्चों को किसानी नहीं करने दूँगा।वे सरकारी बाबू बनेंगे….” अपराधबोध से ग्रस्त राजेंद्र का शरीर सिहर उठा।वे एक बंदी की भाँति न्यायाधीश के सामने गिड़गिड़ाते-सा लगे।
“मैं समझ रही हूँ बाबूजी, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? आपके चले जाने के बाद उस दिन मन्नू के पिताजी ने मुझे बहुत ऊँच-नीच समझाया था। काफी सोच-विचार के बाद अब मैंने निर्णय लिया है कि मैं गाँव में ही रहूँगी और खेती कर उनके सपने को साकार करूँगी।” रीना शांतचित्त होकर विनयपूर्वक निवेदन की।
“ऐसा मत करो दुलहिन!लोग-बाग मुझे क्या कहेंगे?बहू की कमाई खाने वाला नीच कह कर सब मुझे हेयदृष्टि से देखेंगे। मैं कहीं मुँह दिखाने वाला नहीं रह जाऊँगा।मेरी विनती है एक बार पुनः विचार करो।” सामने पड़ी थाली धरी की धरी रह गई और एक कौर भी भोजन मुँह में नहीं जा सका। राजेंद्र के अंग-प्रत्यंग विनय की मुद्रा में एकाग्र हो गये थे।
“मैंने विचार कर लिया है,बाबूजी! अब आपके पुत्र और पुत्रवधू दोनों की जिम्मेवारी मुझे अकेले ही निभानी है।इसलिए मैं आपके साथ ही रहूँगी और किसानी में आपका हाथ बटाऊँगी। यही नहीं किसानों के हित के लिए यदि मुझे सड़क पर भी उतरना पड़े तो वह भी करूँगी।और सरकार द्वारा प्रायोजित सारी सुविधाएँ किसानों के द्वार पर उपलब्ध कराऊँगी; ताकि आगे किसी की माँ की गोद सूनी ना हो सके,किसी पत्नी की माँग का सिंदूर न धूले,किसी बहन से उसका भाई न छिने और किसी बाप के बुढ़ापे की लाठी न टूट जाए।” रीना की आत्मविश्वासपूर्ण बातों ने राजेंद्र का संबल बढ़ाया। वे सहजता से भोजन का कौर मुँह की ओर ले जाते हुए बोले,”अब जो तुम्हारा निर्णय। तुम्हें अपना रास्ता स्वयं तय करना है।पर एक बार मैं फिर कहता हूँ,अब मैं तुम्हें और कष्ट में देखना नहीं चाहता।”
” यह आप की महानता है,बाबूजी!पर अब आप की अवस्था किसानी करने की नहीं है। आखिर एक दिन इस उत्तराधिकार को मुझे ही तो सँभालना है।”
“तुम जैसा चाहो, करो। मैं तुम्हारे हर निर्णय में साथ हूँ।” राजेंद्र स्वीकृति में सिर हिलाये और भोजन करने लगे। भोजन के बाद जब वे उठे,तो तनावरहित थे। उनका मन काफी हल्का हो गया था।रीना के आत्मविश्वास से वे आश्वस्त थे।
धान की कटनी के बाद रीना ने सब्जी की खेती की।पहले वर्ष अपेक्षित सफलता नहीं मिली।पर धीरे-धीरे आय बढ़ती गयी। चार-पाँच वर्षों में सब्जी की खेती ने उसे गाँव का एक सम्पन्न किसान बना दिया।उसे लोग ‘सब्जी वाली दीदी’ नाम से पुकारने लगे।फिर उसने गाँव की महिलाओं को एकत्र कर स्वयं सहायता समूह का निर्माण कराया और इसके माध्यम से उन्हें स्वरोजगार के लिए प्रशिक्षित किया। गाँव की महिलाओं में अभूतपूर्व आत्मविश्वास का जागरण हुआ। उनकी आय बढ़ी और समाज में प्रभाव भी।पैक्स का चुनाव आया तो ‘सब्जी वाली दीदी’ निर्विरोध अध्यक्ष चुन ली गई। फिर तो उसने पैक्स के कायाकल्प की घोषणा कर दी,” जिस यूरिया के लिए मैंने अपना पति खोया,उस यूरिया के लिए अब गाँव के किसानों को कभी भटकना नहीं पड़ेगा। मैं पैक्स को इतना समृद्ध बनाऊँगी कि सभी प्रकार के खाद-उर्वरक व बीज सबको ससमय गाँव में ही उपलब्ध हो सके। सबके अनाज की खरीद की पूरी गारंटी होगी।ऋण की सुविधा भी माँग पर उपलब्ध रहेगी।”
और हुआ भी ऐसा ही। मात्र दो वर्षों में ही किसानों की सारी समस्याओं का समाधान एक ही छत के नीचे उपलब्ध हो गया। गाँव में चारों और समृद्धि दीखने लगी। सबके घरों में खुशियाँ छा गईं।
आज गाँव के प्रवेश मार्ग पर भव्य आयोजन किया गया है। पूरे गाँव को झालर-झण्डों से सजाया गया है। कई गाँवों में आबालवृद्ध फूल-मालों के साथ गाँवकी ओर आ रही सड़क पर दृष्टि जमाए खड़े हैं। तभी गाड़ियों की एक लंबी शृंखला आती हुई दिखाई देती है।संपूर्ण वातावरण जयघोष से गूंज उठता है,”सब्जी वाले दीदी -जिंदाबाद।”
गाड़ियाँ रुकती हैं।आगे जिलाधिकारी उतरते हैं और तेजी से जाकर दूसरी गाड़ी का द्वार खोलते हैं।उसमें से पहले मंत्री जी और फिर रीना उतरती है। लोग उन्हें फूल-मालों से लाद देते हैं। फिर ‘सब्जी वाली दीदी’ का जयघोष गूँजता है।मंत्री जी और रीना समीप बने एक मंच पर ले जाए जाते हैं। मंत्रीजी घोषणा करते हैं,”सब्जी वाली दीदी ने हमारे राज्य को गौरवान्वित किया है। सहकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धि के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर इन्हें सम्मानित किया है।यह हमारे लिए गर्व की बात है। इसलिए केंद्र सरकार ने दीदी को सहकारिता विभाग का ‘सद्भावना दूत’ नियुक्त किया है। अब ‘सब्जी वाली दीदी’ विश्व का एक नामी-गिरामी व्यक्तित्व हैं।मैं इन्हें और इनके कर्तृत्व को प्रणाम करता हूँ।”
तालियों की गड़गड़ाहट से वातावरण का उत्साह देखते ही बनता है।लोग रीना की एक झलक पाने के लिए उतावले हैं। रीना माइक हाथ में लेती हैऔर सभा को संबोधित करती है,”मंत्री जी,मैं चाहे राजदूत हो जाऊँ, चाहे देश का राष्ट्रपति;पर मैं एक किसान ही हूँ। और मुझे इसका गर्व है। मैं इस भरी सभा में पूरे स्वाभिमान के साथ कहती हूँ कि मैं एक किसान हूँ ;एक किसान ही हूँ। और मेरा बेटा भी किसान कहलाने में गर्व का अनुभव करेगा।” एक बार फिर करतलध्वनि से आकाश गूँज उठता है। रीना पुनः बोलती है,” यदि आप मुझे प्रेम करते हैं, मेरा समर्थन करते हैं, तो दोनों हाथ उठाकर मेरे साथ संकल्प लीजिए।”
सभी लोग हाथ ऊपर उठाते हैं। रीना के एक-एक शब्द को दुहराते हैं,”मुझे गर्व है कि मैं किसान हूँ।किसानी ही मेरा कर्म है। और यही मेरा धर्म भी है।मैं किसानी से ऐसा आदर्श उपस्थित करूँगा/करूँगी कि मेरा बेटा भी किसान कहलाने में गर्व का अनुभव करे। भारत माता की जय!”
राजेंद्र भी अपने तीनों पोतों के साथ उपस्थित थे।आज पहली बार उन्हें किसान होने पर सच्चे गर्व की अनुभूति हो रही थी।