गर्म साँसें,जल रहा मन / (गर्मी का नवगीत)
गर्म साँसें,
जल रहा मन ।
चढ़ रहा
पारा,उपरितन ।
नाक ढकते,
कान ढकते,
नख बराबर
बंद हैं, पर,
दग्ध-वायु
जोर देकर
खोल देती
देह के दर ।
चिपचिपाता
स्वेद से तन ।
गर्म साँसें,
जल रहा मन ।
आँख भारी,
होंठ सूखे,
तमतमाते
गाल मेरे ।
कंठ रीता,
प्रहर बीता,
कसमसाते
बाल मेरे ।
धूप चढ़ती
घन-घनाघन ।
गर्म साँसें,
जल रहा मन ।
घर तपा
आँगन तपा है,
ताल तपता
कूप तपता ।
पंछियों के
पर तपे हैं
प्रकृति का
रूप तपता ।
गर्म राका,
तप्त उडगन ।
गर्म साँसें,
जल रहा मन ।
चढ़ रहा
पारा,उपरितन ।
गर्म साँसें,
जल रहा मन ।
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—- ईश्वर दयाल गोस्वामी