गरीब
फटी है धोती फटी है पगडी उसके पास न धेला दमड़ी
कपड़ों से भी झांके छेद, खोल रहे सब तन का भेद
जूती में भी जाल बना, कुछ ऐसे वो कंगाल बना
उसका मन भी रोता है, जब भूखे पेट वो सोता है
पेट और पीठ बना है एक, आ उसकी विपदा तो देख
हाथ में घट्टे पांव बिवाई, हर दर उसने ठोकर खाई
थर थर ठंड में कांप रहा, धोकनी जैसा हाँफ रहा
उसको ना है ठोर कोई, उसका ना है और कोई
कितनी विपदा सहते हैं, ‘गरीब’ जिन्हे हम कहते हैं
उसके आंसू दिल के छाले, क्या समझेंगे ‘किस्मत’ वाले
राजनीति क्या? ज्ञान नहीं, संसद की पहचान नहीं
वह लोकतंत्र को जाने ना, नेता को पहचाने ना
उसकी रोज सुबह यू होती, आज मिलेगी मुझकॊ रोटी?
काम कोई क्या मिल जाएगा, दाम कोई क्या मिल पाएगा
फॉरेन पॉलिसी पता नहीं, इसमें उसकी खता नही
बस भूख काटती आँतो को, वो क्या जाने इन बातो को
वो बदतमीज, तंगहाल है, बदशक्ल,बदहाल है
बदमाश और बदनसीब है, वो सब है, गर वो गरीब है
वो कभी माल मे गया नहीं, ना ऑडी में बैठा है
चमकीले बूटों पर इतराया,ना सूट पहनकर ऐंठा है
कर्म धर्म की ऊंची बाते,लोक दिखावा अंदर घातें
‘उसको’ उनका ज्ञान नहीं, जो ‘उनसा’ धनवान नहीं
करम धरम सब उसका श्रम, वो उससे नहीं शर्माता है
जब खून पसीना हो लेता, दो रोटी तब पाता है
पूंजी उसकी एक लंगोटी, नीति नियत पर ना खोटी
नही मांगता कल्प तरु, उसे चाहिये हक की रोटी