गरीब
मुझको लगता शाप गरीबी
बहुत बड़ा संताप गरीबी,
ताउम्र यह डसता पग- पग
जैसे गेहुअन सांप गरीबी।
हीत मित्र ना कोई इसका
जन्मजात संताप गरीबी,
जनम मरण सब उलझा इसमें
मुक्ति नहीं अभीशाप गरीबी।
साधू संत सब झूठा बनते
पुण्य मिटाये पाप गरीबी।
भाई बन्धु ना सगा सहोदर
मिले जगत अपमान गरीबी।
धूप कड़क या बारीस झम-झम
छूधा मिटे ना प्यास गरीबी,
चोर उच्का कहते सब है
कैसे कहूं सम्मान गरीबी।
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©..पं.संजीव शुक्ल “सचिन”