गरीब खाने पे
आईये आप को ले चलता हूँ मेरे गरीब खाने पे
जहाँ शायद मैं भी नहीं गया हूँ एक जमाने से ।
आजकल मेरा शरीर ही रहता है वहाँ सिमट कर
हालांकि गुजारी है मैंने बचपन उसी ठिकाने पे।
अब तो याद भी नहीं है मुझे कि मैं कब रोया था
जब पिता जी ने सुला दिया था मुझे सिरहाने में।
हाँ मगर भुला नहीं हूँ आज तलक भी वो प्यार
जिसे लूटाया करती थी माँ मुझको खिलाने में ।
उस अभाव ग्रस्त जीवन में भी हम कितने मस्त थे
मिलजुलकर रहते थे खुशी से,बैठते थे नौबतखाने ।
आज हर ऐशो-आराम के साथ वीबी-बच्चे हैं वहीं
बस कोई जाया नहीं करता वक्त अब बिताने में ।
-अजय प्रसाद