गरीबी
बड़ी बेरहम होती है गरीबी
रोटी की चिट्ठी चिट्टी में भी तरकारी के स्वाद चखा देती हैं….
एक शाम पेट भरने की कीमत
पूरा दिन धूप में जला के , रोटी के डकार की
वसूली कर लेती है गरीबी
नन्हे हाथों में हथोड़ा थीम्हा के,
नन्ही सी परी की मासूमियत चुराके
एक लहजे में होशियार बना देती है गरीब
गुड़िया ,खिलौने और सतरंगी टॉफी
और रंग-बिरंगे गुब्बारे मांगने की उम्र में
कुछ मजबूरी के शब्द यूं सिखा देती है गरीबी
की…
साहब ₹2 हुए आज की मजदूरी के हमारे
देखते देखते कोमल हाथों को…
बड़े आराम से खुरदुरा बना देती हैं गरीबी
जिंदगी को….
बड़ी बेशर्मी से मजबूरी का हिजाब पहना देती है
बड़ी बेरहमी से एक एक घूंट का हिसाब लगा लेती है यह गरीबी…।
फटे कुर्ते, फटी साड़ियां कुछ मजबूरी में उलझे दुपट्टे
सिली चप्पल, और नन्ही परियों के मैले कूचले ले झबले…
एक एक मुस्कान का हिसाब लगा लेती है गरीबी
एक मजबूर जिंदगी कुछ यूं गुलाम बना लेती है
यह बेशर्म गरीबी
“मजबूरी की गरीबी”