गरीबक जिनगी (मैथिली कविता)
#दिनेश यादव
कहियो नूनतेल,
कहियो लत्ताकपडा,
दबाईकें जोगाड त लगेबाक अइछे,
पवनिकें तयारी त चलिते रहैक छैक,
बेटीक बिदागरी सेहो आबि जाइत छैक,
सनेसबारीमें चंगेरा भरबाक छइहें,
एक खड साडी,
धोती आ कुर्ताके त देबाक परम्परे छैक ।
बौआबुच्चीके शनिचराक लेल,
चउरक इन्तजाम त भँ जाइत छैक,
गुरुदेवक दक्षिणाक चौवन्नीके लेल,
पसिना छुटैट छैक,
सुपारीक जोगाड मे,
मौनीभरि धान लए दोकान दौडबाक अइछे,
फाहमें सक्कर त मांगैह पडैत छैक ।
अगहनमें भरल कोठी,
पुसमे खुलि जाइत छैक,
माथपर भरि पथियाँ धान
लए बजार जेबाके छईहे,
चारि आना बेसी मोल भेटक की ?,
ताहिलेल एक चट्टी सँ दोसर,
आ तेसरमें दौड लगेबाक वाध्यता छैक ।
चुल्ही पर आँच,
अनियमित भेला महिनों भँ गेल छैक,
कहियो बौआ भुखले, कहियो बृद्ध म्या आ बाबु,
ओहिना सुति रहैत छैक,
मालिक हौ, अन्न दहक,
गरीबकें बेर–बेर लेहारा करैइये पडैय छैक,
एक गोटा गरिबक जिनगी अहिना चलैत छैक ।