गधा दर्शन
इधर-उधर विचर रहे, घास थे वो चर रहे
आदमी में भी गधे, गधे गधो से कह रहे
मन बहुत उदास है, खा रहे जो घास हैं
काश हम भी उनमें हो, खाते जो विकास हैं
वो कुछ दिनो के हैं गधे, हम सदा से हैं गधे
जहां भी देखिए वहां, जुटे हुए गधे- गधे
हम चर रहे हैं घास, वो चर रहे स्वपन हैं
हम लोट के प्रसन्न हैं , वो वोट पे प्रसन्न हैं
गधों पे लग रही टिकट, सो आदमी भी मांगते
टिकट की महता विकट, ये सभी हैं जानते
सदियों से हम ढो रहे, आदमी और बोझ हैं
जनता जैसे ढो रही, लीडरों की फौज है
लीडरों को देखिये, जुबानी जंग में लगे
कच्छ के सभी गधे, हमें तरंग में लगे
युगों युगों से सह रहे, आदमी की मार को
जनता जैसे पिस रही, जीत हो कि हार हो
कुछ कर्ज में दबे हुए, कुछ मरज में दबे हुए
आदमी गधे हुए, यू फर्ज में दबे हुए
गधे नहीं खफा हुए, चाहे कितनी मार हो
आदमी गधे नहीं, हक पे ना प्रहार हो
हालात कैसे हो गए, बैठ के विचार कर
लोकतत्र की आत्मा, गधों पे ना निसार कर