“गदहा”
“गदहा”
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सीधा साधा, गदहा बेचारा;
मुंह न कभी काम से मोड़े।
पीठ पर ही बोझा उठाये ;
और अपने काम से ये ,
कभी भी ना घबराये,
सब इसको फिर भी,
सदा गदहा ही बुलाए।
हर मौसम में ये रहता,
काम को सदा ही तत्पर,
सोता खुले आकाश में,
कभी कुछ भी लादो तुम,
इसके पीठ के ऊपर।
ये सबके सदा काम आता;
पर मानव को कभी इसकी
आवाज भी नही भाता।
वह इसे बहुत ही सताता।
मनुष्य की खातिर ये,
अपनो से सारे रिश्ते तोड़े,
सीधा -साधा गदहा बेचारा,
मुंह ना कभी काम से मोड़े।
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…..✍️ पंकज “कर्ण”
………..कटिहार।।