गणतंत्र
कितना कम फर्क है स्वतन्त्रता व गणतन्त्र दिवस में। मैं दोनों ही दिन कमरे में बैठा मैथ-फिजिक्स के सवालों से जंग करता हूँ जैसे शायद कमोबेश लड़े हों स्वतन्त्रता सेनानी अंग्रेजों से।
छुट्टी है आज, किस काज के लिए मैं ब्रश करता हुआ सोचता हूँ। छत की मुंडेर पर खड़ा जहाँ तक नज़र जाए ,तिरंगे को ढूंढने की कोशिश करता हूँ(हाय, देशभक्त मैं!)। दूर कहीं एक पान के ठेले की दोनों छोरों पर दो छोटे झंडे दिखाई पड़ते हैं। मानो सींग बनाये गए हों साभिप्राय। दूर कहीं से कोई महिला बड़े करुणता से अपने वतन के लोगों को न जाने कौन सा नारा लगाने की रट लगाए बैठी है। महिला परिचित-सी लगती है। पास के स्कूल से “लौंग-लाची” गाने के साथ ताली-सिटी और शोर के सुर प्रवाहित होते मेरे कानों पर टकराते हैं। मैं बेमतलब नज़रे घुमाता हूँ। सामने वाले मन्दिर की ओर गौर करता हूँ। तब-ही मेरे मन में ख्याल आता है कि भारत माँ के बहुत मंदिर क्यों नही? मैं माँ और देवी की विसंगति को पाटने की नाकाम कोशिश करता हूँ। मेरे दिमाग में बचपन के दिन घुमड़ रहे होते हैं। जन-गण-मन की धुन चहकती है भीतर। दंगे-जात-धर्म-दुराचार की याद उस धुन को उदासी में परिणत करने लगती हैं। मैं भारहीनता महसूसता हूँ। लोगों की दुकानें आज भी दस बजे खुलेंगी। जानना चाहता हूँ उनकी राय दिवस की बाबत। तभी सामने वाले उसी स्कूल से “जय और मातरम” का अनुनाद गूँज पड़ता है। “भारत माता की.. और वन्दे..” का अनुमान मेरा दिमाग खुद लगा लेता है। तभी मेरा मुँह ब्रश के फेन से भर जाता है। मैं नल की तरफ दौड़ता हूँ। मुँह धोकर सोचता हूँ काफी समय जाया हो गया देश के बारे सोचते। दरवाजे पर मैथ-फिजिक्स के सवालों को तैनात पा सहम जाता हूँ।