गज़ल
न ही रवा कहिए न ही सज़ा कहिए
जो हो रहा है वो उसकी रज़ा कहिए।
हम तो हैं जी रहे रहमो करम पर उसके
जिन्दगी को ऊपर वाले की दुआ कहिए।
मीठे अल्फाज़ों से ही जख्म भरते हैं
चाहे मरहम कहें उसे चाहे दवा कहिए।
दिल पिघलता है दर्द से होते हीआंखें चार
चाहे आप इसे जिन्दगी का फ़लसफा कहिए।
हम तो हैं बस आपके ही तलबगार
चाहे तो सुनिए चाहे तो कहिए।
–रंजना माथुर दिनांक 19/11/2017
(मेरी स्व रचित व मौलिक रचना)
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