गज़ल(बह्र-2122 2122 2122 212)
हर किसी की आँख से पीकर नशा करता रहा
नित नशे में हर कदम जीता रहा मरता रहा।
झूमता था हर गली के मोड़ पर उन्माद में,
शेखचिल्ली की तरह मन ख्वाब भी गढ़ता रहा।
क्या पता था इश्क का विस्तार भी आकाश सा,
होश में आया बहुत कम जोश में उड़ता रहा।
पत्थरों से सख्त दिल में प्यार के अंकुर कहाँ,
आँख में आँसू लिए नित दरबदर फिरता रहा।
थी ज़माने को अदावत, इश्क था परवान पर,
अलविदा क्योंकर कहूँ यह सोचकर बढ़ता रहा।
रूकता सा चाँद मेरा फिर घटा में जा छुपा,
टूटता सा दिल मेरा मनुहार भी करता रहा।
प्यार की ही शुक्ल में तो इस ज़मी देखा ख़ुदा,
“अरुण” अपने “प्यार “से ही प्यार शुचि करता रहा।
–मौलिक एवम स्वरचित–
अरुण कुमार कुलश्रेष्ठ
लखनऊ (उ.प्र.)