गजल
ग़ज़ल
कमतर की बात है न ये बहतर की बात है |
मिलना बिछड़ना सिर्फ मुकद्दर की बात है|
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मेरा अजब नहीं जो, फसाना सुने कोई,
रिश्तों में तल्खियों की तो घर घर की बात है|
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जिन्दा बनेगा लाश तो होगी ये खुदकुशी,
मत रो मेरे जिगर ये न जौहर की बात है |
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अपनी बुझा रहा हूँ मैं अब प्यास इस तरह,
सूखे मेरे लबों पे समन्दर की बात है|
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बैठे हैं पहली सफ में उन्हीं की सुनें सभी,
पहुँचे फरिश्ते तक ही तो पसतर की बात है |
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बदले मेरे लिबास पे हँसते हैं बस यहाँ,
अपनी छुपा रहे जो वो बिस्तर की बात है |
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यूँ ही किसी का कत्ल न करता कोई कभी,
जोरू, जमीन या तो ‘मनुज’ ज़र की बात है|
मनोज राठौर मनुज