गजल
अब तो जहर को पीना पड़ेगा,
सर्प के दंश को सहना पड़ेगा,,
कोई भी मुझको विष दे दे तो,
चन्दन बनके खुश्बू देना पड़ेगा,,
जीवन मे प्रश्न से जड़ा हुआ मैं,
वक्त की हथेली में रहना पड़ेगा,,
पेड़ जैसा सीधा खड़ा हुआ हूँ मैं,
टूटते नदी के तट पर रहना पड़ेगा,,
पीता हूँ रोज मैं अग्नि के जलन को,
जीवन मे अग्नि-दंश सहना पड़ेगा,,
जलता हूँ लपेटों में चोटे मैं खाकर,
कंचन बनकर जीवन जीना पड़ेगा,,
उलझन के शब्दों में जन्म लिया हूँ,
अर्थ में धंसा हूँ मैं बाहर आना पड़ेगा,,
जिंदगी के जाल में सवालों में उलझा,
आज तक फंसा हूँ मैं जीना पड़ेगा,,
चलता हूँ धूप में धूप को पीता हूँ
चलते धूप में सूर्य-दंश सहना पड़ेगा,,
दिल के दर्द से कितना भी चिटकूं मैं,
जीवन मे दर्पण बन के रहना पड़ेगा,,
कवि बेदर्दी