गजल
आँखो में ख्याबो को सजाती है चाहत
सदा गिरते हुओं को उठती है चाहत
मुमकिन नामुमकिन कुछ नही जानती
सपनो को हक़ीक़त बनाती है चाहत
मरकर भी ये दिलो में जिंदा रहती है
पूरी होने को पुनर्जन्म लेती है चाहत
होनी अनहोनी से इसे कुछ भी नही है
पतझड़ में बसंती फूल खिलाती है चाहत
अमीरी गरीबी की सभी बंदिशे मिटा
धरती को अम्बर से मिलाती है चाहत
दर्द उदासी खामोशी के माहौल में
खुलकर मुस्कुराना सिखाती है चाहत
भले ही अंधी तूफ़ान या सागर हो
पार करने का हौसला देती है चाहत
मुफ़लिसी के दौर में ‘ऋषभ’मायूस न हो
उम्मीदो के चिराग जलाती है चाहत
रचनाकर -ऋषभ तोमर