गजल
आज चाँदनी रात में अंधियारी छा रही है
लगता है वो छत पर बाल सूखा रही है
मेरी गली में भीनी भीनी गंध आ रही है
लगता है वो यहाँ से रुखसार कर रही है
बदली सी है आज ये सारी गुलशन यहाँ
लगता है वो सुर्ख सी कली खिल रही है
ये चाँद सरमा कर इसीलये छिप जाता है
शायद वो मेरा चाँद छत पर टहल रही है
आज हिचकियों का सिलसिला जोर पर है
शायद वो मेरे खातों को आज पढ़ रही है
कल वो तक वो मेरे गीतों पर हँसती थी
आजकल उन्हें बड़ी चाहत से पढ़ रही है
कल सुनकर के गजलो में अपनी तारीफ
वो मुझे चल झूठे कहकर मुस्कुराती थी
वो उन गजलो से गुम हो रही है’ऋषभ’
उनको अखबारो में पढ़ करके रो रही है