गजल-2
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बेखुदी में गुनगुनाना चाहिये।
वक़्त से लम्हा चुराना चाहिये।
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जो इशारों में सदा जाहिर हुए
आज लफ्जों को ठिकाना चाहिये।
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क्यूं दी मेहरबानियाँ तुमने मुझे ,
हक मुझे ये आजमाना चाहिये।
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रात दिन रहती थी रौनक मेरे घर,
अब उसे भी इक बहाना चाहिये।
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साथ खुदगर्जी नहीं रखना कभी,
गर तुम्हें अपना जमाना चाहिये।
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भूख अब इंसा निगलती जा रही,
जिंदगी को शामियाना चाहिये।
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खेत,बगिया,लहलहाते बस वहीँ,
बारिशों को गावं जाना चाहिये।