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22 May 2024 · 1 min read

गजल

चाँद फ़िर बढ़ते-बढ़ते घट गया है
सफ़र भी मुख्त्सर था कट गया है

दरोदीवार क्यों सूने हैं दिल के
कोई साया यहाँ से हट गया है

जिसे छोड़ आए थे हम बरसों पहले
वो ग़म फ़िर हमसे आके लिपट गया है

हुई नजरेइनायत जबसे उनकी
कुहासा सब जेहन का छंट गया है

उगे हर जिस्म पर कांटे ही कांटे
लिबास इंसानियत का फट गया है

वफ़ा की लाश कांधे पर उठाकर
वो शायद आज फ़िर मरघट गया है

“चिराग़”उनका जहां उनको मुबारक़
यहाँ से अपना तो जी उचट गया है

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