गजल
मँडरा रहे काले घने बादल भयानक युद्ध के,
हर ओर बढ़ते जा रहे विकराल सायक युद्ध के।
मल्लाह कश्ती थामकर तटबंध सारे खोल दो,
विश्वास पर कायम नहीं हैं आज मानक युद्ध के।
आतंक की ज्वाला भभककर फैलती ही जा रही,
महँगे दिनों दिन हो रहे खर्चे विनाशक युद्ध के।
तिल भर न धरती कम हुई विस्तृत कभी न हो सकी,
गठजोड़ में फिर भी पड़े हैं देश मारक युद्ध के।
मजबूर हैं इंसान सरहद से पलायन को सहज,
हथियार के सरताज ही बनते सहायक युद्ध के।
जगदीश शर्मा सहज