Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
21 Jun 2020 · 7 min read

गजल

“बेबसी”

दिलदार की मुहब्बत बेज़ार लग रही थी।
हर हार आशिक़ी में स्वीकार लग रही थी।

उजड़े हुए चमन की काँटों भरी कहानी
हालात से मुझे भी लाचार लग रही थी।

अहसास बेजुबां थे बेचैन धड़कनें थीं
ये ज़िंदगी मुझे भी दुश्वार लग रही थी।

उनके बगैर तबियत नासाज़ हो गई थी
मेरी हँसी सनम बिन बीमार लग रही थी।

थी इस क़दर मुसलसल रुस्वाइयाँ वफ़ा में
हर बात दिल्लगी में तकरार लग रही थी।

मिलता उसे जहां में जो खो रहा यहाँ है
किस्मत मुझे पुराना अख़बार लग रही थी।

गुलज़ार आशियां को किसकी नज़र लगी है
ये वक्त की करारी सी मार लग रही थी।

बिकता जहाँ निवाला मरता ज़मीर ‘रजनी’
इंसानियत की नीयत मक्कार लग रही थी।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

गिरगिटों सी आदमी की आज फ़ितरत हो गई।
बेइमानों की जहाँ में रोज़ इज़्ज़त हो गई।

दे दग़ा महबूब ने जागीर समझा है मुझे
आज तोड़ा मौन तो मानो क़यामत हो गई।

चंद सिक्कों में बिका देखा किए हम प्यार को
अब अमीरी में मुहब्बत भी तिज़ारत हो गई।

आज रिश्ते चरमरा कर भेंट कुर्सी की चढ़े
हर गली, हर द्वार, कूचे में सियासत हो गई।

मजहबों के नाम पर बँटता रहा हर आदमी
मुल्क की सरकार से सबको शिकायत हो गई।

हर तरफ़ घुसपैठिये बैठे लगाए घात हैं
देश के ख़ातिर जवानों की शहादत हो गई।

खून के आँसू रुला ‘रजनी’ हँसे दुनिया यहाँ
ज़िंदगी की मौत से जैसे कि संगत हो गई।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

मुकद्दर में मेरे मुहब्बत नहीं है।
मुझे कोई शिकवा, शिकायत नहीं है।

तराजू में तोली मुहब्बत हमारी
उन्हें दिल लगाने की आदत नहीं है।

ख़ता जो न की थी सज़ा उसकी पाई
ज़हन में किसी के स़दाकत नहीं है।

सिसकते लबों से ज़हर पीके रोए
सितम इतने झेले कि कीमत नहीं है।

सुकूं के लिए सब अमन, चैन खोया
जुदा हो गए पर ख़िलाफत नहीं है।

बताएँ किसे हाले ग़म ज़िंदगी का
क़हर रोक ले ऐसी ताकत नहीं है।

तलब-औ-तमन्ना अधूरी है ‘रजनी’
बसर इश्क हो ये रिवायत नहीं है।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
ख्वाब में आए हमारे यूँ हक़ीक़त की तरह।
हो गए शामिल दुआ में आप बरकत की तरह।

आरजू है उम्रभर का साथ मिल जाए हमें
हसरतें दिल की कहें रखलूँ अमानत की तरह।

ख़्वाहिशों की शिद्दतों से आपको हासिल किया
मिल गए हो ज़िंदगी में आप ज़न्नत की तरह।

लग रहा मुझको चमन में इत्र सा बिखरा हुआ
जिस्म में खुशबू महकती है नज़ारत की तरह।

पा रही हूँ प्रीत तेरी बढ़ रही है तिश्नगी
इश्क की सौगात जैसे है इनायत की तरह।

शाम गुज़रें सुरमयी आगोश भरती यामिनी
प्यार में खुशियाँ मिलीं मुझको विरासत की तरह।

चूमती उन चौखटों को आपके पड़ते कदम
आज उल्फ़त भी लगे ‘रजनी’ इबादत की तरह।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

ज़िंदगी तो कमाल करती है।
रोज़ जीना मुहाल करती है।

भूख फुटपाथ पे नज़र आती
आदमी को निढ़ाल करती है।

मुफ़लिसी कोढ़ है मुकद्दर का
मौत आकर हलाल करती है।

खोखले मुल्क हैं सियासत से
चींख जनता बवाल करती है।

आज शमशीर भी लहू माँगे
दे शहादत निहाल करती है
ज़िंदगी तो कमाल करती है।
रोज़ जीना मुहाल करती है।

बाँट कुदरत फ़रेब हँसता है
आज फ़ितरत धमाल करती है।

भूख फुटपाथ पे नज़र आती
आदमी को निढ़ाल करती है।

मुफ़लिसी कोढ़ है मुकद्दर का
बेबसी आ हलाल करती है।

खोखले मुल्क हैं सियासत के
चींख जनता बवाल करती है।

आज शमशीर भी लहू माँगे
दे शहादत निहाल करती है।

मौत की साज़िशें पड़ीं भारी
आज ‘रजनी’ मलाल करती है।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

ज़िंदगी तो कमाल करती है।
रोज़ जीना मुहाल करती है।

खोखले मुल्क हैं सियासत के
चींख जनता बवाल करती है।

बाँट कुदरत फ़रेब हँसता है
आज फ़ितरत धमाल करती है।

मुफ़लिसी कोढ़ है मुकद्दर का
बेबसी आ हलाल करती है।

भूख फुटपाथ पे नज़र आती
आदमी को निढ़ाल करती है।

आज शमशीर भी लहू माँगे
दे शहादत निहाल करती है।

मौत की साज़िशें पड़ीं भारी
आज ‘रजनी’ मलाल करती है।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

ज़िंदगी तो कमाल करती है।
रोज़ जीना मुहाल करती है।

खोखले मुल्क हैं सियासत के
चींख जनता बवाल करती है।

बाँट कुदरत फ़रेब हँसता है
देख फ़ितरत धमाल करती है।

मुफ़लिसी कोढ़ है मुकद्दर का
बेबसी आ हलाल करती है।

भूख फुटपाथ पे नज़र आती
आदमी को निढ़ाल करती है।

टूट शमशीर भी लहू माँगे
दे शहादत निहाल करती है।

मौत की साज़िशें पड़ीं भारी
आज ‘रजनी’ मलाल करती है।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

ऐब दुनिया के गिनाता आदमी।
आपसी रंजिश बढ़ाता आदमी।

चंद सिक्कों में बिकी इंसानियत
भूल गैरत मुस्कुराता आदमी।

चाल चल शतरंज की हैवान बन
भान सत्ता का दिलाता आदमी।

मुफ़लिसी पे वो रहम खाता नहीं
चोट सीने पे लगाता आदमी।

मोम बन ख़्वाहिश पिघलती हैं यहाँ
आग नफ़रत की लगाता आदमी।

घोल रिश्तों में ज़हर तन्हा रहा
बेच खुशियाँ घर जलाता आदमी।

गर्दिशें तकदीर में ‘रजनी’ लिखीं
ख्वाब आँखों से सजाता आदमी।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

आशिक़ी में बेवफ़ाई ने रुलाया है बहुत।
मुस्कुराके दर्द होठों ने छुपाया है बहुत।

हो रही बारिश सुलगती हैं यहाँ तन्हाइयाँ
बेवफ़ाई की मशालों ने जलाया है बहुत।

धूप यादों की जलाकर राख मन को कर रही
खोखली दीवार को हमने बचाया है बहुत।

फूल कह कुचला किए वो और कितना रौंदते
जख़्म अपने क्या दिखाएँ दिल जलाया है बहुत।

आज नश्तर सी चुभीं खामोशियाँ जाने जिगर
नफ़रतों का धुंध सीने से मिटाया है बहुत।

वक्त की आँधी बुझा पाई न दीपक प्यार का
बेरुखी ने प्यार कर हमको सताया है बहुत।

अश्क छाले बन अधर पर फूट ‘रजनी’ रो रहे
खार से झुलसे लबों को फिर हँसाया है बहुत।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

“इंतज़ार”

करूँ फ़रियाद आ जाओ हमें तुम छल न पाओगे।
सजाकर प्रीत अधरों पर हमें कैसे भुलाओगे?

छलकता नीर नयनों से समंदर खार कर डाला
गिराके ठूँठ सा तन-मन हमें कितना मिटाओगे?

तरसते छाँव को दो पल खड़े तन्हा किनारे हैं
विचरते श्वेत घन अंबर हमें कितना सताओगे?

अनबुझे प्रश्न लेकर खोजतीं नज़रें जवाबों को
ज़माने के सवालों से कहो कैसे बचाओगे?

अधूरे गीत अधरों पर झुलाए कौन अब झूला
नज़र में कैद तस्वीरें सनम कैसे चुराओगे?

ग़मों की आग झुलसाए अभी तक होश है बाक़ी
चले आओ बने मरहम हमें कब तक जलाओगे?

नहीं किस्से कहानी हो जिन्हें मैं भूल जाऊँगी
बने मेरा मुकद्दर तुम भला कैसे न आओगे?

तड़पती साँझ वीरानी सही जाती नहीं ‘रजनी’
बिछा दीं राह में पलकें हमें कितना रुलाओगे?

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी।(उ.प्र.)

ज़माने बीत जाते हैं

कभी उल्फ़त निभाने में ज़माने बीत जाते हैं।
कभी मिलने मिलाने में ज़माने बीत जाते हैं।

कभी वो दर्द देते हैं कभी नासूर बनते हैं
कभी मरहम लगाने में ज़माने बीत जाते हैं।

कभी ऊँची हवेली में मिली दौलत रुलाती है
कभी दौलत कमाने में ज़माने बीत जाते हैं।

कभी वोटिंग किसी के नाम पर सत्ता दिलाती है
कभी सत्ता बनाने में ज़माने बीत जाते हैं।

कभी चाँदी चढ़े रिश्ते यहाँ किश्तें भुनाते हैं
कभी किश्तें चुकाने में ज़माने बीत जाते हैं।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

‘वक्त फिर न हराए कहीं’

मौत आकर मिलाए कहीं।
वक्त फिर न हराए कहीं।

छोड़कर आप जब से गए
जुड़ किसी से न पाए कहीं।

दिल मनाले उन्हें प्यार से
उम्र ढल ही न जाए कहीं।।

सोचता रातदिन मैं सनम
फ़ासले आ मिटाए कहीं।

प्यार में क्यों ख़फ़ा हो गए
क्या ख़ता थी बताए कहीं।

दर्द कैसे सुनाऊँ उन्हें
आँख फिर भर न आए कहीं।

ज़िंदगी के अजब पेचे ख़म
आज ‘रजनी’ बुलाए कहीं।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना

‘कट्टर जिगर’

लुटेरे रहनुमा निकले छुपा दिल में ज़हर रक्खा।
कभी अरमान सुलगाए कभी खुद बाख़बर रक्खा।

सिसकते होठ कर फ़रियाद ख़्वाबों में बुलाते हैं
नहीं पूछा सनम ने हाल काबू में शहर रक्खा।

महज़ दीवार उठने से नहीं बनते घरौंदे हैं
चरागों ने जला घर को कदम जाने किधर रक्खा।

ख़तम करने चले हैं दौर उल्फ़त का दिखा सपने
कहर ढ़ाया सितमगर ने बड़ा कट्टर जिगर रक्खा।

हमें चाहत नहीं ‘रजनी’ किसी को आजमाने की
मुहब्बत करने वालों ने मगर ज़ारी सफ़र रक्खा।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

ज़िंदगी की हर कहानी क्यों रुलाती है हमें?
मर गई इंसानियत किस्से सुनाती है हमें।

मुफ़लिसी की मार जब पड़ती हमारे पेट पर
रोटियों के दो निवालों को सताती है हमें।

आदमी ही आदमी को चूसता है हर जगह
भान कुर्सी का यहाँ सत्ता दिलाती है हमें।

जिस्म की होली जलाकर लोग खुशियाँ बाँटते
बेबसी इन हादसों में आजमाती है हमें।

आज उपवन में खिली क्यारी यहाँ मुरझा गई
धूप महलों की नसीबी ये जताती है हमें।

बाँट डाला ईश को मंदिर बना मसजिद बना
किस कदर हालात बदले ये बताती है हमें।

हर तरफ़ रजनी यहाँ ज़ुल्मोसितम छाए हुए
पल रही नफ़रत दिलों में वो जलाती है हमें।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

ज़माने बीत जाते हैं

कभी उल्फ़त निभाने में ज़माने बीत जाते हैं।
कभी मिलने मिलाने में ज़माने बीत जाते हैं।

कभी वो दर्द देते हैं कभी नासूर बनते हैं
कभी मरहम लगाने में ज़माने बीत जाते हैं।

कभी ऊँची हवेली में मिली दौलत रुलाती है
कभी दौलत कमाने में ज़माने बीत जाते हैं।

कभी वोटिंग किसी के नाम पर सत्ता दिलाती है
कभी सत्ता बनाने में ज़माने बीत जाते हैं।

कभी चाँदी चढ़े रिश्ते यहाँ किश्तें भुनाते हैं
कभी किश्तें चुकाने में ज़माने बीत जाते हैं।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

‘वक्त फिर न हराए कहीं’

मौत आकर मिलाए कहीं।
वक्त फिर न हराए कहीं।

छोड़कर आप जब से गए
जुड़ किसी से न पाए कहीं।

दिल मना ले उन्हें प्यार से
उम्र ढल ही न जाए कहीं।।

सोचता रातदिन मैं सनम
फ़ासले आ मिटाए कहीं।

प्यार में क्यों ख़फ़ा हो गए
क्या ख़ता थी बताए कहीं।

दर्द कैसे सुनाऊँ उन्हें
आँख फिर भर न आए कहीं।

ज़िंदगी के अजब पेचे ख़म
आज ‘रजनी’ बुलाए कहीं।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

4 Likes · 2 Comments · 306 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from डॉ. रजनी अग्रवाल 'वाग्देवी रत्ना'
View all
You may also like:
सुख दुःख
सुख दुःख
जगदीश लववंशी
*मैं भी कवि*
*मैं भी कवि*
DR ARUN KUMAR SHASTRI
जंगल ही ना रहे तो फिर सोचो हम क्या हो जाएंगे
जंगल ही ना रहे तो फिर सोचो हम क्या हो जाएंगे
सुशील मिश्रा ' क्षितिज राज '
कैलेंडर नया पुराना
कैलेंडर नया पुराना
Dr MusafiR BaithA
गर्मी आई
गर्मी आई
Manu Vashistha
International Camel Year
International Camel Year
Tushar Jagawat
3386⚘ *पूर्णिका* ⚘
3386⚘ *पूर्णिका* ⚘
Dr.Khedu Bharti
I am Yash Mehra
I am Yash Mehra
Yash mehra
दोहे- उदास
दोहे- उदास
राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
शिक्षक श्री कृष्ण
शिक्षक श्री कृष्ण
Om Prakash Nautiyal
अहसासे ग़मे हिज्र बढ़ाने के लिए आ
अहसासे ग़मे हिज्र बढ़ाने के लिए आ
Sarfaraz Ahmed Aasee
मनुष्य जीवन है अवसर,
मनुष्य जीवन है अवसर,
Ashwini Jha
मोहब्बत जताई गई, इश्क फरमाया गया
मोहब्बत जताई गई, इश्क फरमाया गया
Kumar lalit
माँ सिर्फ़ वात्सल्य नहीं
माँ सिर्फ़ वात्सल्य नहीं
Anand Kumar
***
*** " आधुनिकता के असर.......! " ***
VEDANTA PATEL
नारी
नारी
Dr fauzia Naseem shad
ख़ुद को हमने निकाल रखा है
ख़ुद को हमने निकाल रखा है
Mahendra Narayan
ख़ूबसूरत लम्हें
ख़ूबसूरत लम्हें
Davina Amar Thakral
আজ রাতে তোমায় শেষ চিঠি লিখবো,
আজ রাতে তোমায় শেষ চিঠি লিখবো,
Sakhawat Jisan
कुदरत से मिलन , अद्धभुत मिलन।
कुदरत से मिलन , अद्धभुत मिलन।
Kuldeep mishra (KD)
कैसे निभाऍं उस से, कैसे करें गुज़ारा।
कैसे निभाऍं उस से, कैसे करें गुज़ारा।
सत्य कुमार प्रेमी
■ दोहात्मक मंगलकामनाएं।
■ दोहात्मक मंगलकामनाएं।
*Author प्रणय प्रभात*
आपाधापी व्यस्त बहुत हैं दफ़्तर  में  व्यापार में ।
आपाधापी व्यस्त बहुत हैं दफ़्तर में व्यापार में ।
सत्येन्द्र पटेल ‘प्रखर’
तपते सूरज से यारी है,
तपते सूरज से यारी है,
Satish Srijan
*भॅंवर के बीच में भी हम, प्रबल आशा सॅंजोए हैं (हिंदी गजल)*
*भॅंवर के बीच में भी हम, प्रबल आशा सॅंजोए हैं (हिंदी गजल)*
Ravi Prakash
"बदबू"
Dr. Kishan tandon kranti
"परखना सीख जाओगे "
Slok maurya "umang"
एक सच और सोच
एक सच और सोच
Neeraj Agarwal
सभी मित्रों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।
सभी मित्रों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।
surenderpal vaidya
आदि ब्रह्म है राम
आदि ब्रह्म है राम
डॉ विजय कुमार कन्नौजे
Loading...