( गजल )हमें जख्म अपनों से गहरा मिला है
122 122***{ ग़ज़ल }***122 122
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हमें जख्म अपनों से गहरा मिला है
नहीं कोई मंजिल ये कैसा सिला है
जमी आसमां मिल ना पाए जहां तक
भरम अब ये रहने दें क्यूं अब गिला है
हुआ क्यूं भरम ये जमीं आसमां का
यूं नजरों को धोखा तो हर दम मिला है
कहां कुछ भी बदला है अब भी जहां में
के सहरा से भी कब ये सावन मिला है
कभी कुछ जरा उनके बारे मे सोचो
के गुरबत का तोहफा जिन्हें भी मिला है
बदलते रहे सांप सी केंचुली जो
उन्हे आज डसने का मौका मिला है
जुबां पर है ताला कहे क्या बता अब
गुनाहों में अपनों का चेहरा मिला है
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© गौतम जैन ®