गजल –मेरा शहर देखा नही
$$ ग़ज़ल $$
जब तलक चेहरे को तुमने भर नज़र देखा नही ।
तब तलक तो मुस्कुराने का असर देखा नही ।
देख ली तुमने मुहब्बत की सभी सरगोशियाँ ।
शाम सुबहो -रात देखी दोपहर देखा नही ।
हो गयी ख़ारिज मुकम्मल ये ग़ज़ल हरहाल में ।
क़ाफ़िया बेदाग़ था लेक़िन बहर देखा नही ।
मज़हबी नफऱत की बूँ आयी भला कैसे तुम्हे ?
जबकि तुमने आज तक मेरा शहर देखा नही ।
साथ चलने के लिए तो दोस्त सारे थे मगर ।
दर्द से बेहतर कोई भी हमसफ़र देखा नही ।
जब मिला जिसको मिला भरपूर मिलता ही रहा ।
इश्क़ के ग़म को कहीं भी मुख़्तसर देखा नही ।
छोड़कर रकमिश गया जो इश्क़ के मझधार में ।
डूब साहिल पर गया दरिया मगर देखा नही ।
✍रकमिश सुल्तानपुरी
भदैयाँ सुल्तानपुर उत्तर प्रदेश