गजल———– इश्क को चाहिए क्यों कुछ वक्त बयाँ होने तक.
इश्क को चाहिए क्यों कुछ वक्त बयाँ होने तक.
आह को जलना,जलाना है क्यों जुबाँ होने तक.
तम का हर सैलाब है तेरा सूर्य हो जाने तक.
रात ठहरी है ठहरेगी तेरा सुबह जवां होने तक.
जुल्फ बिखेरे तो अँधेरा हो जाता,आया किया है.
इनको बिखेरो न हाँ रौशनी को नशा होने तक.
उमर को चाहिए कि वह उमर बाँटता ही रहे.
और इश्क आबाद रहे हुस्न के हाँ होने तक.
उनके आने के कवल उनकी सदा आती थी.
किसने अब रोक दिया उनके यहाँ होने तक.
चाँद की तरह ही बढ़ता है हर सौजे-दरूँ.(आन्तरिक वेदना)
चाँद को रोक लो मेरे मुँह में जुबाँ होने तक.
मेरा पैगाम इस सूरज को अभी बाकी है.
चिता मेरी मत ही जलाना बयाँ होने तक.
मैं पत्थर रहा चुनता कि किला गढ़ लेंगे.
खुद हो गया पत्थर पर,तैयार मकां होने तक.
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अरुण कुमार प्रसाद