गजल — अभी जो रात है और जो अँधेरा है
अभी जो रात है और जो अँधेरा है।
कल की कोख का खूबसूरत सबेरा है।
शहर की चारदीवारी में बंद दरवाजे।
कर्म से तेरे खुलेंगे वादा यह तेरा है।
किसी छत के उजड़,गिर जाने से।
कल भी आसमां है और बसेरा है।
पीड़ाओं के चीखे शब्दकोष विवश थे।
ईश्वर को पुकारे थे,स्वरों का घेरा है।
रात के उजाले ऐसे खामोश तो थे न कभी।
किसी अवसाद की रौशनी का यह घनेरा है।
इतना उल्टा है गाने का धुन इस महफिल में।
किसी शोख हसीना के जले दिल का फेरा है।
हर दीवार के अंदर की हवा गुमसुम सी
इसलिए इतना हतप्रभ सा आज सबेरा है।
पृथ्वी के गर्भ में जलता हुआ लावा है दोस्त।
तेरा वक्त तुझे गढ़ने वहां बैठा हुआ ठठेरा है।
आकाश में नाचती ढेर सी डायनियाँ हैं मनुज।
नीचे परत बचाने की जिद मेरे साथ ही तेरा है।
चलो शहर की गलियों में घुमने-फिरने
गुम जिन्दगी का हुआ यहीं सबेरा है।
अभी तुरत तो रुत जवां हुआ है यहाँ।
कौन कहता है कि यहाँ बड़ा अँधेरा है।
हर वक्त मुकर्रर है आंधी,तूफानों के लिए।
अपना वक्त हम मुकर्रर करें तो सबेरा है।
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