गंधारी
गंधारी
गंधारी
तुम्हारी आँखों पर
बंधी पट्टी के क्या कहने
सतीत्व की यह नई परिभाषा
शायद तुम्हीं ने गड़ी होगी
पत्नी पति की कमियों में खो जाये
न कि उसे अपनी सबलता की ढाल दे
यह चिन्तन
तुम्हारा ही होगा
तुम तो आर्यपुत्री थी
फिर तुमने कैसे सोचा
तुम्हारा उत्तरदाईत्व
पुत्रों से अधिक
पति की ओर था ?
पुत्रों के जन्म पर
न तुमने पट्टी खोली
न आंख भर देखा
न छबि को मन पर उतारा
बस टटोलते हाथों से
सहलाया नन्हे राजकुमारों को
फिर आश्चर्य क्यों
यदि उनके व्यक्तित्व निकले
टूटे बिखरे
वे तो तिरस्कृत थे माँ से ही
फिर
कैसे न पहनते कवच
विकृत महत्वकांक्षाओं का
वीर थे वे
दया का पात्र बनने से बच गए
सुनते हैं हम
तुम
न्यायप्रिया थी
भले ही
गहन वेदना के पल में
तुमने दे डाला हो
श्राप कृष्न को
पर गंधारी
उस अन्याय का क्या
जो किया स्वयं तुमने
अपने और अपने
पुत्रों के साथ
महाभारत का युद्ध
जन्मा है
तुम्हारी ही मूर्खता से
तुम्हारा स्वयं बोध
शून्य है
इसलिए
तुम्हारा स्वर निर्बल है
तुम्हें शिव ने माना होगा तपस्विनी
पर हो तुम अपराधिनी
जाओ
तुम्हें इतिहास ने क्षमा किया
क्योंकि
आने वाले युग के चिंतन में
तुम शून्य हो।
शशि महाजन- लेखिका