गंगा
है पवित्र पावन नदी, गंगा जिसका नाम।
बदली निर्मल नीर की, लेती नहीं विराम।।
गंगा गरिमा देश की,कल-कल करे निनाद।
भारत माँ की वंदना, करती भर उन्माद।।
आदिकाल से बह रही,गंगा निर्मल धार।
गोमुख से बंगाल तक, गंगा का विस्तार।।
ब्रह्म कमंडल से बही,गंगा जी की धार।
थाम लिए शिव शीश पर,तीव्र वेगमय भार।।
भगीरथ के प्रयास से,भू पर आई गंग।
सगर पुत्र को तारती ,अनुपम तरल तरंग।।
पड़े नहीं कीड़ा कभी, गंगाऔषध युक्त।
हितकारी करुणामयी,रखे रोग से मुक्त।।
उज्ज्वल शीतल नील जल, देती सबको प्राण।
तरल नीर नीलाभ को, किया मलिन निष्प्राण।।
सुरधुनि, सुरसरि, सुरनदी, कितने तेरे नाम।
मिट्टी को उर्वर करे, माँ बहती अविराम।।
जिस पथ से गंगा बहे, देती जीवन धार।
ममता बरसाती सदा, सबको करे दुलार।।
गावों की जीवन बनी, खेतों की श्रृंगार।
संचित प्राणों को करे, महिमा बड़ा अपार।।
पाले अपने गर्भ में, कितने जीव हजार।
पाप सभी धोती रही, गंगा बड़ी उदार।।
परंपरा ये देश की, पर्व गीत त्योहार।
साक्षी वेदों की रही, गंगा ही आधार।।
भारत की गरिमामयी, देश धर्म का मान।
मोक्षदायिनी मात ये,नित गंगा स्नान।।
सिर्फ नदी यह है नहीं, इससे रहा विवेक।
गंगा ही तो सत्य है, गंगा ही है टेक।।
गंगा कितने दुख सहे, बिना किये आवाज।
कुल में,मुँह खोले कभी, होता नहीं रिवाज।।
अविरल निर्मल नित बहे, हो गंगा सम्मान।
कलकल बहने दो इसे, दे दो इतना मान।।
कण कण कचरे से भरा, बहती विषाद के संग।
सिसक सिसक कर रो रही, इसकी मृदुल तरंग।।
गंगा मैली हो गई, है वेदना अथाह।
बेसुध हो चलती रही, निश्चल पड़ा प्रवाह।।
जो कुछ भी नित हो रहा, गंगा जी के साथ।
पता नहीं क्या आप को,इसमें किसका हाथ।।
मानव अंधा हो गया, फैला रहा विकार।
आँचल गंदा कर दिया, गंगा व्यथा अपार।।
वह क्या थी क्या हो गई, गंगा खुद हैरान।
अपनी हालत देखकर, है बहुत परेशान।।
नित दिन विष से जूझती, गंगा बड़ी उदास।
रंग-रूप अब वो नहीं, वैसी नहीं मिठास ।।
शक्तिहीन गंगा लहर,बहने को मजबूर।
अब अपनी हैसियत से, होती जाती दूर।।
प्लान-पाॅलिसी आड़ में, बढ़ते अत्याचार।
गंगा विकास नाम पर, जेब भरे सरकार।।
अनुपम सुन्दर देश यह, तुझ से ही धन धाम।
दो मुझको आशीष नित, गंगा तुझे प्रणाम।।
—लक्ष्मी सिंह