गंगा
गंगा
मैं पवित्र पूजनीय गंगा हूँ !
शीतल जल मेरा
बहती में पर्वत से, मंदिर घर मेरा l
पवित्रता की देवी मैं,
गौरवमय मस्तक मेरा,
मैं ही तो घर मतस्या का
जीवन उनका शीतल जल मेरा l
मैं शांत भोली-भाली,
मित्रता से भरा देह मेरा
चलावे, कपट, नीति से दूर l
मनुष्य की गिरफ़्त में
मैं गंदगी से भर गई,
अपना मुख देखने से मैं डर गई l
गंदगी से भरपूर न बचा जीवन में उल्लास,
उठा मित्रता से मेरा विश्वास l
क्यों आवाज़ नहीं सुनते मेरी..
मैं उदास नदी उफ़ -उफ़ कर रोती हूँ l
और आंसू रूपी पानी से मैं समुद्र भरती हूँ …
आंसू से समुद्र भरती हूँ ….