गंगा व्यथा
अविरल निर्मल मेरी धारा,
जाने कितनों को है तारा।
अगणित औषधि इसमें घुले,
जाने कितनों के पाप धुले।
थी मुझमें वह ईश्वरीय शक्ति,
कितनों को मिल गई मुझसे मुक्ति।
थी विपदा की वह विकट घड़ी,
जब सगर वंश पर आन पड़ी।
कुल के दीपक का तप था घोर,
मैं ब्रह्म लोक को आई छोड़ ।
निज पुरखे होवें शापमुक्त,
जन मानस का हित था संयुक्त।
काल चक्र संग हुई अबल,
या पापों का था बोझ प्रबल।
जिन जिनका हित मुझमें समाया,
पापों संग क्या क्या न बहाया।
शोक रोग को मुक्त मैं करती,
हुई प्रदूषित आहें भरती।
जन जन कहते मुझको माता,
क्या ऐसा होता ये नाता।
अश्रु भरे हैं मेरे नैन,
न जाने कब मिलेगा चैन।
क्या कोई अब नहीं धरा पर,
स्वच्छ करे जो शिव की गागर।
जोह रही मैं फिर से बाट,
कोई भगीरथ आए घाट।
पुनः करे वह घोर तपस्या,
दूर करे यह विकट समस्या।