गंगा रोज नहाई लोग
साँच कहब बाउर बन जाइब, झूठ कहीं पतियाई लोग।
जियते केहू हाल न पूछी, मरते अश्क बहाई लोग।
एके लेखा हाल बा सबकर, द्वेष जलन ईर्ष्या भरपूर,
मन में खइचा भर काई बा, गंगा रोज नहाई लोग।
मन के पीड़ा मन में राखीं, कहला से कम नाहीं होत,
नमक हथेली में भरि भरि के, घाव खूब सुहुराई लोग।
बुड़बक मनही समझ न पाई, कोशिश कइल हवे बेकार,
जिनका खातिर जान लगाइब, उल्टे तीर चलाई लोग।
आदत आपन छोड़ न पइहन, गिरगिट, श्वान और जैकाल,
मौका मिलते ‘सूर्य’ जानी लीं, आपन रंग देखाई लोग।
सन्तोष कुमार विश्वकर्मा सूर्य