“गंगा मैया”
नख से निकली
भगवान विष्णु के
ब्रम्हा के कमण्डल ने
समाहित किया
अवतरण होते ही धरती पे
शिव जटाओं ने आकार दिया
मंगलवार ज्येष्ठ मास शुक्ल पक्ष
दशमी को हस्त नक्षत्र में
स्वर्ग से अवतरण हुआ
गंगा दशहरा में
स्नान ध्यान करने से
दस पापों का अन्त होता
मेरे वेग को शान्त करने को
रसायनों में घोल दिया
मेरा नारद पुराण ने
व्याख्यान किया
“नास्ति गंगा समं तीर्थ,
नास्ति मातृ समो गुरु”
गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं
मां के बराबर कोई गुरु नहीं
गोस्वामी तुलसी दास ने
भी मेरा उल्लेख किया
‘हरनि पाप त्रिविध ताप
सुमिरन सुरसरित’
मेरे सुमिरन मात्र से पापों
त्रिविध ताप का हरण होता
बूंद -बूंद अमृत की देकर
तुमको जीवन दान दिया
सच मानों तो, मैं जीवन दायिनी
मैंने जीवों का उद्धार किया
उन्हीं जीवों की करतूतों ने
मेरा सीना छलनी कर दिया
कल-कारखानों, गन्दे नालों को
मुझमें समाहित किया
मेरी पवित्रता को धूमिल किया
स्वार्थ के लोभी जीवों ने
जैसे चाहे मेरा उपयोग किया
बीड़ा उठाकर पवित्रता का
मेरा भी उद्धार करो
मैं तुम्हारी गंगा माँ
मुझमें आस्था का
वही दम भरो
आने वाली पीढ़ियों को
मेरा जल “शकुन”
निर्मल व स्वच्छ करों
मैं तुम्हारी गंगा मां मेरी
तुम आह सुनों ||
– शकुंतला अग्रवाल, जयपुर