ख्वाहिशों की समन्दर
ख्वाहिशों की समन्दर में डूबती जा रही
पाने की चाहत नहीं मगर कुछ खोने जा रही
तिमिरांचल में लहरों की ये आवाजें
मुझे भावविभोर किए जा रही
सागर भी अब आत्ममुग्ध हो रही
देख चंचल “प्रभा” भी इसे आज मुग्ध हुए जा रही
ख्वाहिशों के समन्दर में डूबती जा रही
पाने की चाहत नहीं मगर कुछ खोने जा रही
इन नैनों से बहती अश्रु की धारा
अब सागर को भी पराजित किए जा रही
अंधियारा भी देखने को चंद्रमा आज लालायित हो रही
ख्वाहिशों की समन्दर में डूबती जा रही
पाने की चाहत नहीं मगर कुछ खोने जा रही
— प्रभा निराला
( writing14 may)