ख्वाहिशों का टूटता हुआ मंजर….
निभाई हमने सभी मोहब्बत की कसमें,
निभाई हमने वफा- ए- इश्क की सारी रस्में।
दिल की बाजियाँ खेली गई…
मोहब्बत- ए- बाजार में,
उसपर मरकर…
जीते रहे हम उसी के इंतेज़ार में।
खुशियों का दरवाजा फिर कभी ना खुला,
मोहब्बत में दर्द-ए-आलम के सिवा कुछ ना मिला।
मैंने अपनी ख्वाहिशों की टूटते हुए मंजर को बेहद करीब से देखा,
खुद से दूर जाते हुए अपने उस नसीब को देखा।
अब क्यों रोए तु उसकी चाह में,
छोड़ गया जो तुझे इस ज़िंदगी की राह में।
आँखें यूँ समंदर हो गयी,
वो प्यार की ज़मीं भी आज बंजर हो गई।
वक्त गुज़र गया….
और मेरा वक्त वहीं पर ठहर गया,
जब ज़िंदगी से वो हमसफ़र गया।
मिली है हमको वो सज़ा जिसकी न की थी कोई खता,
मोहब्बत में दर्द-ए-आलम के सिवा कुछ ना मिला।
उस जिंदगी पर वार दी हमने जिंदगी ये पूरी,
फ़रेब- ए- जाल से हम रूबरू यूँ हुए….
उन बिन रह गई फिर ये जिंदगी अधूरी।
खैर इस दुनिया में हर शख्स के अपने अलग ही अफ़साने हैं,
भूल बैठे खुद को उनकी उस झूठी दिल्लगी के लिए,
सिर्फ उन्हीं के लिए….
सिर्फ उन्हीं के लिए।
हमारी मोहब्बत में ना थी उनकी कुछ भी वफा,
मोहब्बत में दर्द- ए -आलम के सिवा कुछ ना मिला।।।
-ज्योति खारी