ख्वाहिशें
रात के तीसरे पहर, जब आंख खुली,
देखा कुछ पुरानी ख्वाहिशें खड़ी थीं,
वक़्त की दहलीज़ लांघ कर आयीं थीं,
मैं सोया हुआ था,मुझे जगाने आयीं थीं,
मेरी कुछ ख्वाहिशें,मेरे सिरहाने आयीं थीं।
भूलीं बिसरी सी और कुछ छुपाई हुई थीं,
मैंने मजबूरी में कुछ ख्वाहिशें दबायीं हुई थीं,
मौका मिला था उन सबको बाहर आने का,
बहुत से अरमानों के पंख लगाए हुए थीं,
एक उम्मीद सी थी उनकी आंखों में,
खुद के सच होने की तलब लगाए हुए थीं,
मेरी ख्वाहिशें आज मुझे जगाने आयीं थीं,
मेरी मर्ज़ी से जो मैंने कभी दफ़नाईं थीं,
न जाने किस किस के लिए,भुलायीं थीं,
दूसरों के ख्वाबों को पूरा करने में,
मैंने ना जाने कितनी ख्वाहिशें,क़त्ल करवायीं थीं,
आज वो लहूलुहान मुझे कसम दिलाने आयीं थीं,
मुझ हारे हुए को फिर से हिम्मत दिलाने आयीं थीं,
अपनी अर्ज़ी को खुदा की मर्ज़ी बताने आयीं थीं,
मेरी ख्वाहिशें आज मुझे जगाने आयीं थीं ..।
©ऋषि सिंह