ख्वाब
भीड़ सड़को पर
बैठी है
मसले तय करने,
घरों से जब वो निकली
तो कहा गया
सिर्फ , जरूरी सामान ही साथ ले कर चलें।
इसलिए, अपनी सोच और समझ
को वो सहेजकर घर के संदूक मे
रख आईं।
वो अस्थायी मंचो पर
बैठे मदारियों को
मसीहा मान बैठी है।
और थिरकने लगी
सोचे समझे इंक़लाब
की धुनों पर।
इस आंच मे रोटियां तो
सेकी गयी पर भीड़ को
इससे सरोकार न था।
उसे अपने इस्तेमाल
होने की भनक हो शायद।
पर वो चंद सिक्कों और सपनों की
खनक के आगे बिक ही
जाती है हर बार।
भीड़ की भी अपनी
मजबूरियां हैं।
ये बात उन मसीहाओं
अच्छी तरह मालूम है।
ख्वाब इसी तरह तो बेचे जाते
हैं मजमों मे!!!