खोज सत्य की
खोज सत्य की करने वाला, राही चले अकेला।
धीरे-धीरे जुटता जाता, शिष्य वृंद का मेला।।
बहुत कठिन है खोज सत्य की, बिरला ही कर पाता।
मैं हूॅं कौन, कहाॅं से आया? इसका पता लगाता।।
किसी सिद्ध सद्गुरु का उसको, बनना पड़ता चेला।
खोज सत्य की करने वाला, राही चले अकेला।।
सद्गुरु ही सुबोध देता है- नश्वर मानव काया।
विद्यमान काया के भीतर, मायापति की माया।।
मायापति ही जगदात्मा है, शाश्वत उसका खेला।
खोज सत्य की करने वाला, राही चले अकेला।।
सचर-अचर में विद्यमान है, मायापति अविनाशी।
अणु-अणु में उसकी सत्ता है, वह शासक अधिशासी।।
उसने ही हर जीव-जंतु रच, उसमें प्राण उड़ेला।
खोज सत्य की करने वाला, राही चले अकेला।।
निराकार साकार वही है, वह ही भीतर-बाहर।
कर्ता भर्ता संहर्ता वह, उसका है सचराचर।।
उसे खोज वह ही हो जाता, खोजी संध्या वेला।
खोज सत्य की करने वाला, राही चले अकेला।।
सत्य एक है, बहुत भाॅंति से, कहते कहने वाले।
मंजिल एक, पंथ बहुतेरे, चलें खोजने वाले।।
हर संकल्पवान खोजी ने, खोजा सहकर सेला।
खोज सत्य की करने वाला, राही चले अकेला।।
महेश चन्द्र त्रिपाठी