खोए हैं उनके नैना कहाँ !
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* खोए हैं उनके नैना कहाँ *
खूब चमकती रही बिजलियाँ
बिन बरसे ही बादल गया
बुझ रहा दिल मेरा
खोए हैं उनके नैना कहाँ
बात उन्हीं पर आ रुकती है
दुनिया भर की बातों में
भीजन को तरसे है मन
प्रेम-पगी बरसातों में
उस दिन का रस्ता देखें अँखियाँ
जब होगा हाथ तुम्हारे हाथों में
निखरे बिरवे प्रेम के
महके दिशाओं के सब कोण यहाँ
अधरों के फूल नहीं खिले, पर
मन का पंछी मौन कहाँ
खोए हैं उनके नैना कहाँ . . . . .
भँवरे जब-जब फूलों पर
बैठ-बैठ उड़ जाते हैं
तरुणाई फूलों की वही
प्यासे प्यास बुझाते हैं
पवन झकोरों संग इठलाते
रुनगुन-गुनगुन प्रेमधुन गाते हैं
मेरे जीवन की बगिया में
कब आएगा वो समाँ
धरती पर होंगे चाँद-तारे
घर होगा अपना आसमाँ
खोए हैं उनके नैना कहाँ . . . . .
प्रेम-रोग जग धुँधला दीखे
भीतर बिखरा उजियारा हो
मिलन ही औषध एक आस बस
शेष सभी अँधियारा हो
जगत-नियन्ता नियति संग-संग
खेले खेल इक न्यारा हो
हलधर लौटते गाँव को
बज रहीं जैसे शहनाईयाँ
ऊँची उठती मुंडेर घर की
गहरी होती आँगन की गहराईयाँ
खोए हैं उनके नैना कहाँ . . . . . !
वेदप्रकाश लाम्बा ९४६६०-१७३१२