खेल वक्त का
वक्त नहीं उन्हें
परवाह
करने की हमारी
हमने उनकी
यादों में
काट दी जिन्दगी
चिता भी
है बड़ी बेशरम
जलाती रहती है
शरीर
और कहती है
चिंता से
जला इन्सान का
तन
करते रहे
माता पिता
परवाह
बच्चों की
जिन्दगी भर
बुढ़ापे में
छोड़ दी
चिन्ता
बच्चों ने
करों परवाह
शरीर की
रखोगे
चुस्त दुरुस्त
तो नहीं
करनी पड़ेगी
चिन्ता
बीमारी की
करता है
मौला परवाह
बन्दों की
फिर क्यों
फिक्र करे
फकीर
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल