खेत का सांड
लहलहाए फसलों को
जब चरते हो
देख कर
देखते ही रहना चाहता हूं
बहुत देर तक ।
हजारों वर्ष बाद !
नाथी, पगहा, जुआठा
से मुक्त
हरे खेतों में
फ़ैल कर
तुम्हारा चरना
जैसे,
घुड़सवार सेना
दस्तक दे चुकी हो
किसी रणभूमि में
जब भी,
ओआंय्य, ओआंय्य, ओआंय्य
करके आवाज देता हूं
तुम अपने नथुनों को फुलाकर
फ्फूं,फ्फूं,फ्फूं, फ्फूं, फ्फूं
करके तमतमा जाते हो
और चल पड़ते हो
अपनी नथुनों को नीचे दबाए और सींग,
जोड़ा भाले की तरह
तानकर,
मैं डर जाता हूं!
क्या अब, चर डालोगे
पूरी फसलों को
उखाड़ दोगे
उनकी जड़ों को,
पलटहवा हल से
और फिर चलाओगे
पाटा
किसी नए
घुड़सवार के लिए ?
क्या बाऊ जी के बातों से
नाराज़ हो,
“खटि – खटि- मरैं बहेतरा
बैठे खांय तुरंग”
अब तो कहीं
तुरंग नहीं खाता
बैठ कर
अब तो, वह भी खींचता है
दूल्हे की बघ्घी
ढोता है
ईंट ।
फिर क्यों,
नाराज़ होकर
बिना डिल्ल वाले
विदेशी
जर्सी और फ्रिसिएन
के साथ
चर जाना चाहते हो
सब कुछ ?
उनके पुरखे तो, कभी नहीं चले
हल, चक्की, कोल्हू, रहट, दौंरी और पाटा !
बेड़े में
बंधी गयों का खाया चारा,
किया तंग
बाछी और बाछों को
बदल दिया
उनकी नस्ल को ।
क्या भूल गए,
तुम जब पीपल के नीचे
बैठे होते थे
तेजी – तेजी से बुलाते थे,
गर्दन हिला कर
और अपनी दरबरी जीभ से
चाट के , सपाट कर देते थे मेरे
सिर के बलों को,
किसी गिलहरी की तरह,
तुम्हारे चोट पर
मैं ही तो रखता था,
घी का फा़हा !
आओ
लौट आओ
फिर लहलहाएगी खेती
महकेगा बगीचा
पहले की तरह ।
~आनन्द मिश्र