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19 Sep 2021 · 1 min read

खुली छत का प्यार

उसका खुली छत पर आकर कपड़े सुखाना
भीगी जुल्फों को झटकना और सुलझाना

पढ़ने के बहाने हमारा भी छत पर आना
किताब के पीछे से कनखियों से निहारना

ना जाने कब आंखों का गुणनफल दो दूनी चार हो गया
और अनजाने में ही हमें एक दूसरे से प्यार हो गया

ना जाने कब वो मेरे जीने का मकसद बन गए
आज हम दादा दादी और नाना नानी बन गए

जिंदगी का इतना लंबा सफर तय कर चुके हैं हम
अब कोई तमन्ना नही जिंदगी जी चुके हैं हम

बस अब तो खुदा से सिर्फ एक ही दुआ है
वहां भी ऐसा ही प्यार हो जैसा यहां हुआ है

वीर कुमार जैन
19 सितंबर 2021

238 Views
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