खुली छत का प्यार
उसका खुली छत पर आकर कपड़े सुखाना
भीगी जुल्फों को झटकना और सुलझाना
पढ़ने के बहाने हमारा भी छत पर आना
किताब के पीछे से कनखियों से निहारना
ना जाने कब आंखों का गुणनफल दो दूनी चार हो गया
और अनजाने में ही हमें एक दूसरे से प्यार हो गया
ना जाने कब वो मेरे जीने का मकसद बन गए
आज हम दादा दादी और नाना नानी बन गए
जिंदगी का इतना लंबा सफर तय कर चुके हैं हम
अब कोई तमन्ना नही जिंदगी जी चुके हैं हम
बस अब तो खुदा से सिर्फ एक ही दुआ है
वहां भी ऐसा ही प्यार हो जैसा यहां हुआ है
वीर कुमार जैन
19 सितंबर 2021