खुद को
बड़ी शिद्दत से कोशिश की,
कि समझ जाऊं खुद को,
कि निकाल लाऊं खुदी में से खुद को
जो हर छोटी बात पे खुश हो जाती है
और उस से भी छोटी बात पे उदास हो जाती है
पर मिलती ही नहीं मैं खुद में ही खुद को
बॉराई सी ढूंढती रह जाती हूं
और लोग ढूंढ़ लेते हैं,
मुझ में ही न जाने किस किस को
मेरे ही मन के अंगणाई में
सूखा सा एक आश निराश का पेड़
जिस पे मेरे ही मन का सपनों की गोराईया घोंसला बनाए बैठी है
बेहतर कल के उम्मीद में
वो अंडे देती है सुनहरी सुबह के जैसी
लोग फोड़ देते हैं,
वो अमावस की रात हो जैसे
और मैं, टुकुर टुकुर देखने के
अलावा कुछ नहीं कर पाती
~ सिद्धार्थ